ग़ज़ल 364/28
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गर बन न सका फूल तो काँटा न बना कर
चलते हुए राही को न बेबात चुभा कर ।
क्या कह रही है प्यार की बहती हुई नदी
रोको न रवानी को मेरे बाँध बना कर ।
झुकने को तो झुक जाएगा दुर्गम ये हिमालय
चलना है अगर चल तो नई राह बना कर ।
मत भूल की वापस तुझे आना है ज़मीं पर
उडना है गगन में भले जितना भी उड़ा कर ।
बालू का घरौंदा है समझता है जिसे घर
चाहे जो समझ ले तू इसे घर न कहा कर ।
वैसे तो मेरे दिल में है इक प्यार का दर्या
गाता है मुहब्बत का सदा गीत, सुना कर।
खाली है मेरे हाथ तो किस बात का है ग़म
आ पास मेरे बैठ इधर , तू भी दुआ कर ।
किस रूप में मिल जायेगा इन्सां में फ़रिश्ता
’आनन’ तू यही सोच के दुनिया से मिला कर ।
-आनन्द.पाठक--