मंगलवार, 19 मई 2009

एक कविता 5 [01]: मृदुल अंकुर भी ...

कविता 5 [01]

मृदुल अंकुर भी
तोड़ कर पत्थर पनपती है
एक उर्जा-शक्ति
अंतस में धधकती है
'मगर हम आदमी है
उम्र भर लड़ते रहे नित्य-प्रति की शून्य अभावों से
रोज़ सूली पर चढ़े - उतरे
आँख में आंसू भरे
और तुम?
 देवता बन कर बसे
जा पहाडों में ,गुफाओं में कन्दराओं में !
या नदी के छोर
दूर सागर से,कहीं उस पार
या किसी अनजान से थे द्वीप
या पर्वतों की कठिन दुर्गम चोटियां
वह पलायन था तुम्हारा??
या संघर्षरत की चूकती क्षमता ??
या स्वयं को निरीह पाना ??
या की हम से दूर रहना ??
हम मनुज थे
आदमी का था अदम्य साहस
खोज लेंगे ,आप के आवासस्थल
कंदरा में या गुफा में
यह हमारी जीजिविषा है
कट कर पत्थर पहाडों के
बाँध कर उत्ताल लहरें , सेतु-बन्धन
गर्जनाएं हो समंदर की
या कि दुर्गम चोटियां
हो हिमालय की , शिवालिक की
आ गएँ हैं पास भगवन !
यह हमारी शक्ति है
भाग कर हम जा नहीं बसते
कन्दराओं मे, गुफाओं में
क्यों की हम आदमी है
शून्य अभावों में
संघर्षरत रहना हमारी नियति है

-आनन्द  पाठक -

2 टिप्‍पणियां:

रंजना ने कहा…

वाह !! मन मुग्ध हो गया...प्रेरणादायी अतिसुन्दर कविता हेतु आभार.

आनन्द पाठक ने कहा…

प्रिय रंजना जी
आप का ब्लॉग देखा बहुत सुन्दर है
आप ने कविता सराही ,धन्यवाद

--आनंद