रविवार, 17 मई 2009

एक ग़ज़ल 03 :पंडित ने कहा इधर ...

पंडित ने कहा इधर से है मुल्ला ने कहा इधर से है
हम बीच खड़े हैं दोनों के तेरे घर की राह किधर से है

नफ़रत का धुँआ उठा करता अपनो का ही दम घुटता है
इस बंद मकाँ के कमरे में कहो रोशनदान किधर से है

सब भटके भूल-भूलैया में जंत्री में पोथी पतरा में
जो प्रेम की राह निकलती है उस दिल का का राह किधर से है

मथुरा से हैं ?काशी से हैं ? उज्जैनी हैं ? अनिवासी हैं ?
हर तीर्थ पे पण्डे पूछ रहे 'बोलो जजमान किधर से हैं ?

जो दान-पुण्य करना कर दो पुरखे तो इसी पोथी में
बच कर भी जाओगे कहाँ हम जागीरदार इधर के हैं

जो चांदी के मन्दिर में हैं सोने के सिंहासन पर
जो शबरी की कुटिया में हैं वह भगवान किधर के हैं?

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