गुरुवार, 11 जून 2009

गीत 12 [18]: तुम बिना पढ़े .ही ...

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गीत  12[18]: तुम बिना पढ़े ही लौटा दी ---


तुम बिना पढ़े लौटा दी मेरी आत्मकथा
'आवरण' देख पुस्तक पढ़ने की आदी हो


तुम फूलों का रंगों से मोल लगाती हो
मैं भीनी-भीनी खुशबू का आभारी हूँ
तुम सजी-सजाई दुकानों की ग्राहक हो
मैं प्यार बेचता गली-गली व्यापारी हूँ 

तुम सुन न सकोगी मेरी अग्नि-शिखा गीतें
रिमझिम सावन में गीत मेघ के  गाती  हो


मैं भर न सका जीवन में सतरंगी किरणे
मैं पा न सका हूँ तेरे आँचल की छाया
मैं गूँथ न सका बन तेरी वेणी का गजरा
जीवन के तपते रेतों पर चलता आया 

तुम पथरीली राहों से बच-बच चलती हो
तुम बेला- चंपा- जुही कली की साथी हो


तुम चाँद सितारों की बातें करती हो
पर धरती के संग जुड़ने से डरती हो
तुम नंदन-कानन उपवन खेल रही हो
क्यों चन्दन वन की सुधियों में रहती हो 
 
तुम थके पाँव में छाले पड़ना क्या जानो
तुम पाँव महावर मेहदी सदा रचाती हो


तुम मेरे उच्छवासों के लय में घुली रही
क्यों मेरे प्रणय-समर्पण से अनजान रही
जो देखा तुम ने मेरा श्यामल रंग देखा
क्यों मेरे मानस-मंदिर की पहचान नहीं 

तुम मुझे परख ना पाई हो अफ़सोस यही
तुम विज्ञापन दे दे कर मित्र बनाती  हो

-आनन्द पाठक-

सं 27-11-20

1 टिप्पणी:

Yogesh Verma Swapn ने कहा…

bahut pyaari rachna ke liye badhaai sweekaren.