रविवार, 22 अगस्त 2010

एक ग़ज़ल 18 : न पर्दा उठेगा .....

फ़ेलुन---फ़ेलुन--फ़ेलुन--फ़ेलुन
122    -----122----122----122
बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
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एक ग़ज़ल ; न पर्दा उठेगा ....

न पर्दा उठेगा , न दीदार होगा
तो सज्दा तेरे दर पे सौ बार होगा

तेरे अंजुमन में हमीं जब न होंगे
तो फिर कौन हम-सा तलबगार होगा

बहुत दिन हुए हैं कि हिचकी न आई
यक़ीनन मेरा यार बेजार होगा

मुहब्बत है कोई तमाशा नहीं ये
सरेआम मुझसे न इजहार होगा

दिल-ए-नातवाँ क्यों तू घबरा रहा है ?
मसीहा है वो ख़ुद  न बीमार होगा

जो पर्दा उठेगा तो दुनिया कहेगी
ज़माने में ऐसा कहाँ यार होगा !

वो जिस दिन मेरा हमसफ़र होगा ’आनन’
सफ़र ज़िन्दगी का न दुश्वार होगा

-आनन्द पाठक--

[सं 20-05-18]