शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

एक ग़ज़ल 21[46] : लहरों के साथ वो भी..

   मफ़ऊलु-फ़ाइलातुन--// मफ़ऊलु --फ़ाइलातुन
   221-------2122-----//    221-- -------2122
बह्र-ए-मुज़ारिअ’ मुसम्मन अख़रब 
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ग़ज़ल 21[46] :लहरों के साथ ....

लहरों के साथ वो भी बहने लगे लहर में
ऐसे ही लोग क़ाबिल समझे गए सफ़र में

क्या गाँव ,क्या शहर सब,अब हो गए बराबर
आदर्श की मिनारें तब्दील खण्डहर में

दीवार पे लिखे थे नारों-सा मिट गए हैं
जो कुछ वज़ूद था भी वो मिट गया शहर में

हम एक दूसरे से यूँ ख़ौफ़ खा रहे हैं
हर आदमी है लगता जैसे बुझा ज़हर में

जो दल अदल-बदल कर ’दिल्ली’ में जा के बैठे
उनको ही फूल अर्पित होते रहे समर में

आँखों भरे हैं आँसू ,लब पे दुआ की बातें
डर है कि साथ वाला डँस ले नहीं डगर में

साँपों की बस्तियों में इक खलबली मची है
इक आदमी शहर का जो आ गया नज़र में

-आनन्द.पाठक
[सं 21-05-18]