रविवार, 7 अगस्त 2011

गीत 29 : यह तुम्हारा प्रणय हठ है ......

एक गीत : यह तुम्हारा प्रणय हठ है...

यह तुम्हारा प्रणय-हठ है ,एक तरफा प्यार क्या है !

वह तुम्हारी कल्पना थी जो मुझे साकार माना
और अपनी ग़लतियों का भी मुझे आधार माना
जो अधूरी प्यास है वह ख़ुद-ब-ख़ुद तुमने बढ़ाई
मधु-मिलन हो या विरह मैंने सदा आभार माना
इस अधूरी प्यास का तुम ही कहो विस्तार क्या है ?
यह तुम्हारा प्रणय-हठ है........

क्या नहीं मालूम तुम को प्रेम की है राह दुष्कर
क्या समझ कर आ गये दो-चार पोथी-पत्र पढ़ कर
स्वयं का अस्तित्व खोना शर्त है पहली यहाँ की
वो ही पहुँचा आख़िरी तक जो जिया हर रोज़ मर कर
इस अयाचित भेंट पर मेरा भला अधिकार क्या है ?
यह तुम्हारा प्रणय-हठ है......

स्वयं को कर के समर्पित मैं सदा गर्वित रही हूँ
हर चरण अनुगामिनी बन मैं सदा हर्षित रही हूँ
’चन्द्र’ थे या ’इन्द्र’ थे, हर काल में पूजित रहे क्यों?
मैं ही ’पाषाणी’ बनी ,नारी रही,शापित रही हूँ
ॠषि प्रवर! उस दण्ड के औचित्य का आधार क्या है ?
यह तुम्हारा प्रणय-हठ है....

मैं सृजन की केन्द्र-विन्दु,शक्ति हूँ ,संहार हूँ मैं
तप्त-मन जलते बदन पर शबनमी बौछार हूँ मैं
मैं ही ’अनसूया" बनी मैं ही बनी रण-चण्डिका भी
या तुम्हारे रूठने पर इक सरल मनुहार हूँ मैं
जब न अन्तर्मन खिले तो प्रकृति का श्रॄंगार क्या है !
यह तुम्हारा प्रणय-हठ है....

झांक कर देखा नहीं तुमने कभी अपने हृदय में
मैं तुम्हारे साथ ही थी हर घड़ी,हर श्वाँस-लय में
किन्तु तुम ही व्यस्त थे प्रिय ! व्यर्थ के धन-संचयन में
मैं सदा सहभागिनी थी हर पराजय ,जय-विजय में
मन भटकता रह गया तो मन का फिर उद्धार क्या है ?
यह तुम्हारा प्रणय-हठ है ,एक तरफा प्यार क्या है !

-आनन्द.पाठक

1 टिप्पणी:

शारदा अरोरा ने कहा…

badhiya prastuti , naree man ki vytha ...kamaal hai ek bhi comment nahi aaya ..