शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012

गीत 33 : कभी कभी इस दिल को.....

कभी कभी इस दिल को जाने क्या हो जाता है !
दुनिया लाख मना करती है अपनी गाता है

एक दीप भारी पड़ सकता है अँधियारों पर
सर पर बाँध कफ़न जो निकले सत्य विचारो पर
एक अकेली नौका जूझ रही है लहरों से
लोग रहे आदर्श झाड़ते खड़े किनारों पर

आँधी-पानी,तूफ़ां-बिजली राह रोकती हो-
अपनी धुन का पक्का राही कब रुक पाता है !

चरण वन्दना को आतुर हैं जो दरबारी हैं
कंठी-माला दंड-कमंडल लिए शिकारी हैं
हर चुनाव में कैसे कैसे स्वांग रचा करते
’स्विस-बैंक’ के खाताधारी लगे भिखारी हैं

खड़ा रहेगा साथ मिरे जिससे उम्मीदें थीं
ऐन वक़्त पर बिना रीढ का क्यों हो जाता है ?

जो लहरों के साथ साथ में बहा नहीं करते
जो सरकारी अनुदानों पर पला नहीं करते
जिसके अन्दर ज्योति-पुंज की किरणें बाकी हैं
अँधियारों की खुली चुनौती सहा नहीं करते

क्यों पीता है विष का प्याला सूली चढता है ?
जो दुनिया से हट कर अपनी राह बनाता है
कभी-कभी इस दिल को जाने .......

-आनन्द.पाठक

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