शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

गीत 47 : एक मन दो बदन ...

एक गीत : एक मन दो बदन ...

एक मन दो बदन की घनी छाँव में
इक क़दम तुम चलो,इक क़दम मैं चलूँ

ये कहानी नई तो नहीं है मगर
सब को अपनी कहानी नई सी लगे
बस ख़ुदा से यही हूँ दुआ  माँगता
प्रीति अपनी पुरानी कभी ना लगे

एक ही श्वाँस में हम सिमट जायेंगे
एक पल तुम ढलो,एक पल मैं ढलूँ

तेरे शाने से पल्लू सरक जो गया
मान लेता हूँ कोई निमन्त्रण नहीं
फिर वो पलकें झुकाने का क्या अर्थ था?
क्या वो मन का था मन से समर्पण नहीं ?

एक पल मधु-मिलन के लिए प्राण !क्यूँ
उम्र भर तुम जलो, उम्र भर मैं जलूँ ?

चाँदनी सी छलकती बहकती हुई
मेरे आँगन में उतरो कभी तो सही
कितनी बातें छुपा कर,दबा कर रखी
पास बैठो ,कहूँ कुछ, कही अनकही

तुम ज़माने की  बातों से डरना नहीं
फूल बन तुम खिलो ,गन्ध बन कर मिलूँ

उन के आने की कोई ख़बर तो नहीं
आँख मेरी क्यूँ रह रह फड़कने लगी
इस चमन में अचानक ये क्या हो गया
हर कली क्यूँ चहकने बहकने  लगी

नेह की डोर से जो कि टूटे नहीं
तुम मुझे बाँध लो,मैं तुम्हे बाँध लूँ

किसके आँचल को छू कर हवा आ गई
सोये सपने हमारे जगा कर गई
मैं भटकने लगा किस के दीदार में
और मुझ को ही मुझसे जुदा कर गई

एक आवाज़ आती रही उम्र भर
एक आभास बन कर तुम्हें मैं छलूँ

शब्द मेरे भी चन्दन हैं, रोली बने
भाव पूजा की थाली लिए, आ गया
तुमको स्वीकार ना हो, अलग बात है
दिल में आया ,जो भाया, वही गा गया

आरती का दीया हूँ तिरी ठौर का
लौ लगी है,जली है ,तो क्या ना मिलूँ ?
एक मन दो बदन की घनी छाँव में ......

-आनन्द.पाठक-

कोई टिप्पणी नहीं: