शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014

ग़ज़ल 62 [07] : ऐसे समा गये हो...

ग़ज़ल 62[07]

221----2122  // 221---2122
मुज़ारे’ मुसम्मन अख़रब
मफ़ऊलु-- फ़ाइलातुन // मफ़ऊलु--फ़ाइलातुन
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ऐसे समा गये हो ,जानम मेरी नज़र में
तुम को ही ढूँढता हूँ ,हर शै में ,हर बशर में

इस दिल के आईने में इक अक्स जब से उभरा
फिर  बाद उसके कोई ठहरा नहीं नज़र में

पर्दा तो तेरे रुख पर देखा सभी ने लेकिन
देखा तुझे नुमायां ख़ुरशीद में ,क़मर में

जल्वा तेरा नुमायां हर सू जो मैने देखा
शम्स-ओ-क़मर में, गुल में, मर्जान में, गुहर में

वादे पे तेरे ज़ालिम हम ऐतबार कर के
भटका किए हैं तनहा कब से तेरे नगर में

आये गये हज़ारों इस रास्ते से ’आनन’
तुम ही नहीं हो तन्हा इस इश्क़ के सफ़र में

-आनन्द.पाठक


शब्दार्थ
शम्स-ओ-क़मर में =चाँद सूरज में
मर्जान में ,गुहर में= मूँगे में-मोती में

[सं 30-06-19]

रविवार, 20 अप्रैल 2014

ग़ज़ल 61[06] : आज फिर से मुहब्बत की बाते करो..

ग़ज़ल 61[06]

212--212--212--212
आज फिर से मुहब्बत की बातें करो
दिल है तन्हा  रफ़ाक़त  की बातें करो

ये  हवाई  उड़ाने  बहुत  हो  चुकीं
अब ज़मीनी हक़ीक़त की बातें करो

माह-ओ-अन्जुम की बातें मुबारक़ तुम्हें
मेरी रोटी सलामत की बातें करो

जो दिखाया वो  टी0वी0  पे जन्नत दिखी
दौर-ए-हाज़िर सदाक़त  की बातें करो

फेकना  यूँ ही  कीचड़ मुनासिब नहीं
कुछ मयारी सियासत की बातें करो

ये अक़ीदत नहीं ,चापलूसी है बस
गर हो ग़ैरत तो ग़ैरत की बातें करो

बाद मुद्दत के आए हो ’आनन’ के घर
पास बैठो ,न रुख़सत की बातें करो

-आनन्द.पाठक

शब्दार्थ
माह-ओ-अन्जुम की बातें = चाँद तारों की बातें
मुनासिब                          = उचित
मयारी            =स्तरीय standard
्दौर-ए-हाज़िर = वर्तमान समय
सदाक़त         =यथार्थ ,सच्चाई
अक़ीदत         = किसी के प्रति शुद्ध निष्ठा

[सं 30-06-19]

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

ग़ज़ल 60 [05] : वही मुद्दे ,वही वादे...

ग़ज़ल 60[05]

1222---1222---1222----1222

वही मुद्दे , वही वादे  ,वही चेहरे  पुराने हैं
सियासत की बिसातें हैं शराफ़त के बहाने हैं

चुनावी दौर में फ़िरक़ापरस्ती की हवाएं क्यूँ
निशाने पर ही क्यों रहते हमारे  आशियाने हैं

हमारे दौर का ये भी करिश्मा कम नहीं, यारो !
रँगे है हाथ ख़ूँ जिन के ,उन्हीं के हम दिवाने  हैं

तुम्हारे झूठ में कबतक ,कहाँ तक ढूँढते सच को
तुम्हारी सोच में अब साज़िशों के ताने-बाने हैं

जिधर नफ़रत सुलगती हैं ,उधर है ख़ौफ़ का मंज़र
जिधर उल्फ़त महकती है, उधर मौसम सुहाने हैं

चलो इस बात का भी फ़ैसला हो जाये तो अच्छा
तेरी नफ़रत है बरतर या मेरी उल्फ़त के गाने हैं

यही है वक़्त अब ’आनन’ उठा ले हाथ में परचम
अभी लोगो के होंठों पर सजे क़ौमी  तराने हैं

-आनन्द.पाठक-

[सं 30-06-19]

मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

ग़ज़ल 59 [04] : अब तो उठिए...


ग़ज़ल 59[04]

212--212--212

अब तो उठिए,बहुत सो लिए
खिड़कियां तो ज़रा  खोलिए

सोच में है हलाहल  भरा
फिर कहाँ तक शहद घोलिए

बात सुनिए मेरी या नहीं
प्यार से तो ज़रा बोलिए

लोग क्या क्या हैं कहने लगे
गाँठ मन की तो अब खोलिए

दोस्ती मे तिजारत नहीं
इक भरोसे को मत तोलिए

जो मिला प्यार से हम मिले
बाद उसके ही हम हो लिए

हाल ’आनन’ का क्या पूछना
दाग़ दिल पर थे कुछ,धो लिए

-आनन्द.पाठक

[सं 30-06-19]