शनिवार, 23 अगस्त 2014

गीत 56 : यूँ ही नज़रें झुका कर न ...

एक गीत :


यूँ ही नज़रें झुका कर न बैठी रहो
कुछ तो बातें करो दिल बहल जायेगा

वो अदायें तुम्हारी कहाँ खो गईं
जो ज़माने की चालों से थीं बेख़बर
वो महकता बदन और ज़ुल्फ़े खुली
वो क़दम लड़खड़ाते इधर से उधर

याद आती कुलाचें जो  हिरनी सी थीं
आज भी दिल सँभालू ,फ़िसल जायेगा

लोग चेहरे पे चेहरे चढ़ाए  हुए
ये शहर अजनबी है ,न हँस कर मिलो
कोई रुकता नहीं है किसी के लिए
तेज़ रफ़्तार है तुम भी चलती चलो

मन का दरपन हमेशा दमकता रहे
रूप क्या? रंग क्या? ये तो ढल जायेगा

इक जनम भी सनम होगा काफी नहीं
इतनी बातें है कितनी सुनाऊँ  तुम्हें
ये मिलन की घड़ी उम्र बन जाये तो
एक-दो  गीत कहो तो सुना दूँ  तुम्हें

मौत भी आ गई तो ठहर जायेगी
दो घड़ी को इरादा बदल जायेगा

ज़िन्दगी भी अजब इक पहेली रही
जितनी सुलझाई उतनी उलझती गई
जैसी चाही थी वैसी मिली ही नहीं
जो मिली भी तो वो भी बिखरती गई

कौन कहता है दिल मेरा पत्थर सा है
प्यार से छू के देखो ,पिघल जायेगा

साथ चलते हुए दूर तक आ गये
लौट कर अब तो जाना है मुमकिन नहीं
शाम होने लगी दीप जलने लगे
दो घड़ी भी हो जीना तो तुम बिन नहीं

साँस में साँस ऐसी घुली है ,कि तुम
जब भी चाहो मिरा दम निकल जायेगा

आने वाली नई पीढ़ियों के लिए
"प्रेम होता है क्या?:- इक इबारत लिखें
चीज़ बाजार में है ये बिकती नहीं
ये तिजारत नहीं है ,ज़ियारत लिखें

ये मुहब्बत इबादत से है कम नहीं
पाँव बहके अगर तो सँभल जायेगा

यूँ ही नज़रें झुका कर न .....


-आनन्द.पाठक-
8800927181

बुधवार, 20 अगस्त 2014

चन्द माहिया : क़िस्त 06

   :1:

ख़ुद से कुछ कहता है
तनहाई में दिल
जब खोया रहता है ?

   :2:
फिर लौट के कब आना
आज नहीं तो कल 
इक दिन तो हमें  जाना

   :3:

परदा ये उठाना है
आस बँधी तुम से
जीने का बहाना है

   :4:

जो दर्द हैं जीवन के
कह देते हैं सब
दो आँसू विरहन के

   :5:

ख़ंज़र से न गोली से
नफ़रत मरती है
इक प्यार की बोली से

-आनन्द पाठक-

[सं0 15-06-18]

मंगलवार, 19 अगस्त 2014

मुक्तक 03/01 D



:1:
दर्द के गीत गाता  रहा
मन ही मन मुस्कराता रहा
आँसुओं ने बयां कर दिया
वरना मैं तो छुपाता रहा 

:2:

दिल खिलौना समझ ,तोड़ कर
चल दिए तुम मुझे  छोड़ कर
मैं खड़ा हूँ  वहीं   आज तक
ज़िन्दगी के उसी  मोड़  पर 

:3:

हाल पूछो न मेरी हस्ती का
सर पे इलजाम बुत परस्ती का
उसको ढूँढा ,नहीं मिला मुझको
क्या गिला करते अपनी पस्ती का

:4:/01

लोग बैसाखियों के सहारे चले
जो चले भी किनारे किनारे चले
सरपरस्ती न हासिल हुई थी जिसे
वो समन्दर में कश्ती उतारे चले

xx       xx      xx

-आनन्द.पाठक--


मंगलवार, 12 अगस्त 2014

गीत 55 : तुम ’अहं’ की टोकरी...



तुम अहं की टोकरी  सर पर उठाए कब तलक
स्वयं की दुनिया बना कर ,स्वयं को छलते रहोगे

आईना तो आईना है ,सच है तो सच ही कहेगा
जो मुखौटा है तुम्हारा , वो मुखौटा  ही रहेगा
लाख भगवा वस्त्र पहनो या तिलक छापा लगा लो
जो तुम्हारा कर्म या दुष्कर्म है  ख़ुद ही कहेगा

सत्य की अवहेलना कर ,झूठ को स्वीकार करना
कब तलक तुम स्वयं की जयकार जय करते रहोगे

तुम भले ही जो कहो पर मन तुम्हारा जानता है
किस धुँए के पार्श्व में क्या सत्य है  पहचानता है
सोच गिरवी रख दिए प्रतिबद्धता के नाम पर जब
कब उजाले को उजाला दिल तुम्हारा  मानता है

खिड़कियाँ खोलो कि देखो रुत बदलने लग गई
बन्द कमरे की घुटन में कब तलक सड़ते रहोगे

आँकड़ों के रंग भर ,रंगीन तस्वीरें  सजा कर
और सूनी आँख में फिर कुछ नए सपने जगा कर
अस्मिता का प्रश्न है ,लाशें लटकती पेड़ पर जब
भूल जाते हैं उसे फिर ,प्रश्न  ’संसद’ में उठा कर

शब्द की जादूगरी से नित तिलस्मी जाल बुन कर
आम जनता को कहाँ तक ,कब तलक छलते रहोगे

-आनन्द.पाठक-