रविवार, 29 मार्च 2015

चन्द माहिया : क़िस्त 18


 

क़िस्त 18

1

क्यों मन से हारा है ,

कब मिलता सब को

हर बार किनारा है ?

 

2

इक दर्द उभरता है,

ख़्वाब-ओ-ख़यालों में

वो जब भी उतरता है।

 

3

कल मेरे बयां होंगे,

मैं न रहूँ शायद,

पर मेरे निशां होंगे।

 

4

आए वो नहीं अबतक,

ढूँढ रहीं आँखें,

हर शाम ढलूँ कबतक ?

 

5

महकी ये हवाएँ हैं,

उनके आने की

शायद ये सदाएँ हैं।

 

 

 

कोई टिप्पणी नहीं: