शुक्रवार, 15 मई 2015

एक ग़ज़ल 69 औरों की तरह ....

221---2121----1221----212


औरों की तरह "हाँ’ में कभी "हाँ’ नहीं किया
शायद इसीलिए  मुझे   पागल समझ लिया

जो कुछ दिया है आप ने एहसान आप का

उन हादिसात का कभी  शिकवा  नहीं किया

दो-चार बात तुम से भी करनी थी .ज़िन्दगी !

लेकिन ग़म-ए-हयात ने  मौक़ा  नहीं  दिया

आदिल बिके हुए हैं जो क़ातिल के हाथ  में

साहिब ! तिरे निज़ाम का सौ  बार  शुक्रिया

क़ानून भी वही है ,तो मुजरिम भी  है वही

मुजरिम को देखने का नज़रिया बदल लिया

पैसे की ज़ोर पर वो जमानत पे है रिहा
क़ानून का ख़याल है ,इन्साफ़ कर दिया

’आनन’ तुम्हारे दौर का इन्साफ़ क्या यही !

हक़ में अमीर के ही  सदा फ़ैसला   किया


-आनन्द.पाठक-

हादिसात =दुर्घटनाओं का
आदिल   = इन्साफ़ करने वाला
निज़ाम  = व्यवस्था
ग़म-ए-हयात = ज़िन्दगी का ग़म

[सं 30-06-19]

1 टिप्पणी:

Tayal meet Kavita sansar ने कहा…

सटीक प्रस्तुति