बुधवार, 23 मार्च 2016

गीत 34 : होली पर एक भोजपुरी गीत...

होली पर सब मनई के अडवान्स में बधाई ......

होली पर एक ठे ’भोजपुरी’ गीत रऊआ लोग के सेवा में ....
नीक लागी तऽ  ठीक , ना नीक लागी तऽ कवनो बात नाहीं....
ई गीत के पहिले चार लाईन अऊरी सुन लेईं

माना कि गीत ई पुरान बा
      हर घर कऽ इहे बयान बा
होली कऽ मस्ती बयार मे-
मत पूछऽ बुढ़वो जवान बा--- कबीरा स र र र र ऽ

अब हमहूँ 60-के ऊपरे चलत बानी..

भोजपुरी गीत : होली पर....

कईसे मनाईब होली ? हो राजा !
कईसे मनाईब होली..ऽऽऽऽऽऽ

आवे केऽ कह गईला अजहूँ नऽ अईला
’एस्मेसवे’ भेजला ,नऽ पइसे पठऊला
पूछा न कईसे चलाइलऽ  खरचा
अपने तऽ जा के,परदेसे रम गईला 

कईसे सजाई रंगोली?  हो राजा  !
कईसे सजाई रंगोली,,ऽऽऽऽऽ

मईया के कम से कम लुग्गा तऽ चाही
’नन्हका’ छरिआईल बाऽ ,जूता तऽ चाही
मँहगाई अस मरलस कि आँटा बा गीला
’मुनिया’ कऽ कईसे अब लहँगा सिआई

कईसे सिआईं हम चोली ? हो राजा !
कईसे सिआईं हम चोली ,,ऽऽऽऽऽऽऽ

’रमनथवा’ मारे लाऽ रह रह के बोली
’कलुआ’ मुँहझँऊसा करे लाऽ ठिठोली
पूछेलीं गुईयाँ ,सब सखियाँ ,सहेली
अईहें नऽ ’जीजा’ काऽ अब किओ होली?

खा लेबों ज़हरे कऽ गोली हो राजा
खा लेबों ज़हरे कऽ  गोली..ऽऽऽऽऽ

अरे! कईसे मनाईब होली हो राजा ,कईसे मनाईब होली...

-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ [असहज पाठकों के लिए]
एस्मेसवे’ ==S M S
लुग्गा   = साड़ी
छरिआईल बा = जिद कर रहा है
मुँहझँऊसा = आप सब जानते होंगे [अर्थ अपनी श्रीमती जी से पूछ लीजियेगा]

सोमवार, 21 मार्च 2016

चन्द माहिया : क़िस्त.33


चन्द माहिया : ..33

:1:

भर दो इस झोली में
प्यार भरे सपने
इस बार की होली में

:2:

मारो ना पिचकारी
कोरी है अब तक
तन की मेरी सारी

:3:
रंगोली आँगन की
देख रही राहें
साजन के आवन की

:4:
मन ऐसा रँगा ,माहिया !
जितना भी धोऊँ
उतना ही चढ़ा ,माहिया !

:5:
मुश्किल की पहल आए
सब्र न खो देना
इक राह निकल आए


-आनन्द.पाठक-
[सं 13-06-18]

गुरुवार, 10 मार्च 2016

चन्द माहिया: क़िस्त 30

चन्द माहिया : क़िस्त 30

:1:
तुम से गर  जुड़ना है
मतलब है इस का
बस ख़ुद से बिछुड़ना है

:2:
आने को आ जाऊँ
रोक रहा कोई
कैसे मैं ठुकराऊँ ?

:3:
इक लफ़्ज़ मुहब्बत है
जिसके लिए मेरी
दुनिया से अदावत है

:4;
दीदार हुआ जब से
जो भी रहा बाक़ी
ईमान गया तब से

:5:
जब तू ही मेरे दिल में
ढूँढ रहा है मैं
फिर किस को महफ़िल में ?


आनन्द.पाठक
[सं 13-06-18]


शनिवार, 5 मार्च 2016

एक ग़ज़ल 79[25] : यूँ तो तेरी गली से....

मुज़ारे’ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ मक्फ़ूफ़ मुख़्न्निक़ सालिम अल आखिर
मफ़ऊलु---फ़ाअ’लातुन  // मफ़ऊलु---फ़ाअ’लातुन 
221--------2122        //  221-------2122

  

यूँ तो तेरी गली से , मैं बार  बार गुज़रा
लेकिन हूँ जब भी गुज़रा ,मैं सोगवार गुज़रा

तुमको यकीं न होगा ,गर दाग़-ए-दिल दिखाऊँ
राहे-ए-तलब में कितना ,गर्द-ओ-ग़ुबार गुज़रा

आते नहीं हो अब तुम ,क्या हो गया है तुमको
क्या कह गया हूँ ऐसा ,जो नागवार  गुज़रा

दामन बचा बचा कर ,मेरे मकां से बच कर
रुख पर निक़ाब डाले ,मेरा निगार  गुज़रा

मैं चाहता हूँ  कितना तुझको ख़बर न होगी
राह-ए-वफ़ा से तेरा  सजदागुज़ार  गुज़रा

सारे गुनाह मेरे  हैं साथन साथ चलते
दैर-ओ-हरम के आगे ,मैं शर्मसार गुज़रा

रिश्तों की मैं तिज़ारत करता नहीं हूं,’आनन’
मेरी तरह से वो भी था गुनहगार गुज़रा

-आनन्द पाठक-

[सं 30-06-19]
राह-ए-तलब = प्रेम के मार्ग में