शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2016

एक ग़ज़ल 84[29] : जो जागे हैं.....


1222------1222------1222----1222
मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन
बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम
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जो जागे हैं मगर उठते नहीं  उनको जगाना क्या
खुदी को ख़ुद जगाना है किसी के पास जाना क्या

निज़ाम -ए- दौर-ए-हाज़िर को  बदलने जो चले थे तुम
बिके कुर्सी की खातिर तुम तो ,फिर झ्ण्डा उठाना क्या

ज़माने को ख़बर है सब  तुम्हारी डींग-शेखी  की
दिखे मासूम से चेहरे ,असल चेहरा छुपाना क्या

न चेहरे पे शिकन उसके ,न आँखों में नदामत है
न  लानत ही समझता है तो फिर दरपन दिखाना क्या

तुम्हारी बन्द मुठ्ठी हम समझ बैठे थे लाखों  की
खुली तो खाक थी फिर खाक कोअब आजमाना क्या

वही चेहरे ,वही मुद्दे ,वही फ़ित्ना-परस्ती है
सभी दल एक जैसे  है ,नया दल क्या,पुराना क्या

इबारत है लिखी दीवार पर गर पढ़ सको ’आनन’
समझ जाओ इशारा क्या ,नताइज को बताना क्या 

शब्दार्थ
         निज़ाम-ए-दौर-ए-हाज़िर = वर्तमान काल की शासन व्यवस्था
             नदामत   = पश्चाताप/पछतावा
लानत = धिक्कार
फ़ित्ना परस्ती = दंगा/फ़साद को प्रश्रय देना
नताइज  = नतीजे/ परिणाम

-आनन्द.पाठक-
[सं 30-06-19]

बुधवार, 12 अक्तूबर 2016

एक ग़ज़ल 83[30] : नहीं उतरेगा अब कोई......

1222---1222----1222----122
मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन---मफ़ईलुन--फ़ऊलुन
बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन महज़ूफ़
--------------------------------------------------

नहीं उतरेगा अब कोई फ़रिश्ता आसमाँ से
उसे डर लग रहा होगा यहाँ अहल-ए-ज़हाँ से

न कोह-ए-तूर पे उतरेगी कोई रोशनी अब
हमी को करनी होगी रोशनी सोज़-ए-निहाँ से

ज़माना लद गया जब आदमी में आदमी था
अयाँ होने लगे हैं लोग अब आतिश-ज़ुबाँ से

अभी निकला नहीं है क़ाफ़िला बस्ती से आगे
गिला करने लगे हैं लोग  मीर-ए-कारवां से

हमारा राहबर खुद ही यहाँ गुमराह हुआ है
खुदा जाने कहाँ को ले के जायेगा  यहाँ  से

इधर आना तो पढ़ लेना मेरी रूदाद-ए-हस्ती
जिसे मैं कह न पाया था कभी अपनी ज़ुबाँ से

कभी ’आनन’ को भी अपनी दुआ में याद रखना
भला था या बुरा था ,हो रहा रुखसत जहाँ से

शब्दार्थ
अहल-ए-ज़हाँ से   = इस दुनिया के लोगों से
सोज़-ए-निहाँ  से = [दिल के] अन्दर छुपी आग से
आतिश-ज़बां से =आग लगाती बातों से[अग्नि वाणी]
मीर-ए-कारवाँ से = कारवाँ का नेतॄत्व करने वाले से
रूदाद-ए-हस्ती = जीवन-गाथा

-आनन्द.पाठक-
[सं 28-05-18]