रविवार, 25 दिसंबर 2016

एक कविता 7[18] : सूरज निकल रहा है,,,,

एक कविता 7 [18]:  सूरज निकल रहा है.......

सूरज निकल रहा है
मेरा देश,सुना है
आगे बढ़ रहा है ,
सूरज निकल रहा है

रिंग टोन से टी0वी0 तक
घिसे पिटे से सुबह शाम तक
वही पुराने बजते गाने
सूरज निकल रहा है

लेकिन सूरज तो बबूल पर
टँगा हुआ है
भ्रष्ट धुन्ध से घिरा हुआ है
कुहरों की साजिश से
घिरी हुई प्राची की किरणें
कलकत्ता से दिल्ली तक
धूप हमारी जाड़े वाली
कोई निगल रहा है
सूरज निकल रहा है

एक सतत संघर्ष चल रहा
आज नहीं तो कल सँवरेगा
सच का पथ
नहीं रोकने से रुकता है
सूरज का रथ
’सत्यमेव जयते’ है तो
सत्यमेव जयते-ही होगा
काला धन पिघल रहा है

-आनन्द.पाठक-