सोमवार, 17 जुलाई 2017

ग़ज़ल 91[43] : दिल न रोशन हुआ---

एक ग़ज़ल 91 :
212---212---212---212-// 212---212---212---212

दिल न रोशन हुआ-----

दिल न रोशन हुआ ,लौ लगी भी नही, फिर इबादत का ये सिलसिला किस लिए ?
फिर ये चन्दन ,ये टीका,जबीं पे निशां और  तस्बीह, मनका  लिया किसलिए ?

सब को मालूम है तेरे घर का पता ,हो कि पण्डित पुजारी ,मुअल्लिम कोई.
तू मिला ही नहीं लापता आज तक ,ढूँढने का अलग है मज़ा  किस लिए ?

निकहत-ए-ज़ुल्फ़ जाने कहाँ तक गईं ,लोग आने लगे बदगुमां हो इधर,
यार मेरा अभी तक तो आया नहीं ,दिल है राह-ए-वफ़ा में खड़ा  किस लिए   ?   

तिश्नगी सब की होती है इक सी सनम,क्या शज़र ,क्या बसर,क्या है धरती चमन,
प्यास ही जब नहीं बुझ सकी आजतक,फिर ये ज़ुल्फ़ों की काली घटा किस लिए ?

बज़्म में सब तुम्हारे रहे आशना .  एक मैं ही रहा  अजनबी की तरह ,
वक़्त-ए-रुखसत निगाहें थीं नम हो गईं,फिर वो दस्त-ए-दुआ था उठा किस लिए ?

माल-ओ-ज़र ,कुछ अना, कुछ रही कजरवी, जाल तुमने बुना क़ैद भी ख़ुद रहा,
फिर रिहाई का क्यूँ अब तलबगार है  ,दाम-ए हिर्स-ओ-हवस था बुना किस लिए ?

लोग किरदार अपना निभा कर गए, लौट कर उनको आना दुबारा नहीं
कौन है ख़ाक में जो मिला हो नहीं , फिर तू ’आनन’ अबस तो रहा किस लिए ?

-आनन्द.पाठक-
08800927181
शब्दार्थ
तस्बीह = जप माला
मुअल्लिम= अध्यापक
निकहत-ए-ज़ुल्फ़= बालों की महक
तिशनगी  = प्यास
वक़्त-ए-रुखसत = जुदाई के समय
माल-ओ-ज़र  = धन सम्पति
अना = अहम
कजरवी =अत्याचार अनीति जुल्म
दाम-ए-हिर्स-ओ-हवस  = लोभ लालच लिप्सा के जाल

सोमवार, 10 जुलाई 2017

ग़ज़ल 90[45] : कहने को कह रहा है-----

एक  ग़ैर रवायती ग़ज़ल : कहने को कह रहा है-----
221---2121---1221---212

कहने को कह रहा है कि वो बेकसूर है
लेकिन कहीं तो दाल में काला ज़रूर है

लाया "समाजवाद" ग़रीबो  से छीन कर 
बेटी -दमाद ,भाई -भतीजों  पे नूर है

काली कमाई है नही, सब ’दान’ में मिला
मज़लूम का मसीहा है साहिब हुज़ूर है

ऐसा  धुँआ उठा कि कहीं कुछ नहीं दिखे
वो दूध का धुला है -बताता  ज़रूर  है

’कुर्सी ’ दिखी  उसूल सभी  फ़ाख़्ता हुए
ठोकर लगा ईमान किया चूर चूर  है

सत्ता का ये नशा है कि सर चढ़ के बोलता
जिसको भी देखिये वो सर-ए-पुर-ग़रूर है

ये रहनुमा है क़ौम के क़ीमत वसूलते
’आनन’ फ़रेब-ए-रहनुमा पे क्यों सबूर है ?

-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ -
सबूर = सब्र करने वाला/धैर्यवान
सर-ए-पुर ग़रूर =घमंडी/अहंकारी

शनिवार, 1 जुलाई 2017

एक ग़ज़ल 89[42] : मिल जाओ अगर तुम तो----

221--1222 // 221-1222

एक ग़ज़ल :  मिल जाओ अगर तुम---

मिल जाओ अगर तुम तो ,मिल जाये खुदाई है
क्यों तुम से करूँ परदा , जब दिल में सफ़ाई है

देखा तो नहीं अबतक . लेकिन हो ख़यालों में
सीरत की तेरी मैने ,  तस्वीर   बनाई   है

लोगों से सुना था कुछ , कुछ जिक्र किताबों में
कुछ रंग-ए-तसव्वुर से , रंगोली  सजाई  है

माना कि रहा हासिल ,कुछ दर्द ,या चश्म-ए-नम
पर रस्म थी उल्फ़त की,  शिद्दत  से निभाई है

ज़ाहिद ने बहुत रोका ,दिल है कि नहीं माना
बस इश्क़-ए-बुतां ख़ातिर ,इक उम्र  गँवाई  है

ये इश्क़-ए-हक़ीक़ी है ,या इश्क़-ए-मजाज़ी है
दोनो की इबादत में ,गरदन ही झुकाई  है

’आनन’ जो कभी तूने ,दिल खोल दिया होता
ख़ुशबू  तो तेरे दिल के ,अन्दर ही समाई  है

-आनन्द.पाठक-     

सीरत   = चारित्रिक विशेषताएं
रंग-ए-तसव्वुर= कल्पनाओं के रंग से
चस्म-ए-नम   = आँसू भरी आंख , दुखी
शिद्दत से = मनोयोग से
इश्क़-ए-हक़ीकी= आध्यात्मिक/अलौकिक प्रेम
इश्क़-ए-मजाज़ी = सांसारिक प्रेम