गुरुवार, 27 दिसंबर 2018

ग़ज़ल 112[55]: इधर आना नहीं ज़ाहिद

1222--1222---1222---1222
एक ग़ज़ल : इधर आना नहीं ज़ाहिद

इधर आना नहीं ज़ाहिद , इधर रिन्दों की बस्ती है
तुम्हारी कौन सुनता है ,यहाँ अपनी ही मस्ती  है

भले हैं या बुरे हैं हम ,कि जो भी हैं ,या जैसे भी
हमारी अपनी दुनिया है हमारी अपनी हस्ती है

तुम्हारी हूर तुम को हो मुबारक और जन्नत भी
हमारे वास्ते काफी  हमारी  बुतपरस्ती  है

तुम्हारी और दुनिया है ,हमारी और है दुनिया
ज़हादत की वही  बातें ,यहाँ बस मौज़-मस्ती है

तुम्हारी मस्लहत अपनी ,दलाइल हैं हमारे भी
कि हम दोनो ही गाफ़िल हैं ये कैसी ख़ुदपरस्ती है ?

कभी छुप कर जो आना मैकदे में ,देखना ज़ाहिद
कि कैसे ज़िन्दगी आकर यहाँ मय को तरसती है

ज़माना तुमको ठुकराए तो फिर ’आनन’ से मिल लेना
भरा है दिल मुहब्बत से ,भले ही तंगदस्ती  है

-आनन्द पाठक-

रविवार, 23 दिसंबर 2018

ग़ज़ल 111[38] : लोग क्या क्या नहीं कहा करते--

2122----1212----22
बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून


एक ग़ज़ल : लोग क्या क्या नहीं --

लोग क्या क्या  नहीं कहा करते
जब कभी तुमसे हम मिला करते

इश्क़ क्या है ? फ़रेब खा कर भी
बारहा इश्क़ की दुआ  करते

ज़िन्दगी क्या तुम्हे शिकायत है
कब नहीं तुम से हम वफ़ा करते

दर्द अपना हो या जमाने का
दर्द सब एक सा लगा करते

हाथ औरों का थाम ले बढ़ कर
लोग ऐसे कहाँ मिला करते

इश्क़ उनके लिए नहीं होता
जो कि अन्जाम से डरा करते

दर्द अपना छुपा के रख ’आनन’
लोग सुनते है बस,हँसा करते

-आनन्द पाठक-

गुरुवार, 20 दिसंबर 2018

ग़ज़ल 110[54] : राम की बात करते--


ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन---मफ़ाइलुन----फ़े’लुन
2122---------1212-----22



राम मन्दिर की बात करते हैं
’वोट’ से झोलियाँ वो भरते हैं

अह्ल-ए-दुनिया की बात क्या करना
लोग दम झूठ का ही भरते हैं

कौन सुनता है हम ग़रीबों की
साँस लेते हुए भी मरते हैं

जो भी कहना है बरमला कहिए
बात क्यों यूँ घुमा के करते हैं

आप की कोशिशें हज़ार रहीं
टूट कर भी न हम बिखरते हैं

आप से क्या गिला करें ’आनन’
कस्में खाते हैं फिर मुकरते हैं

-आनन्द.पाठक-


बरमला= खुल्लम खुल्ला

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018

ग़ज़ल 109[53]: आज इतनी मिली है--

एक ग़ज़ल : आज इतनी मिली है--
212----212----212---212


आज इतनी मिली है  ख़ुशी आप से
दिल मिला तो मिली ज़िन्दगी आप से

तीरगी राह-ए-उल्फ़त पे तारी न हो
छन के आती रहे रोशनी  आप से

बात मेरी भी शामिल कहीं न कहीं
जो कहानी सुनी आप की आप से

राज़-ए-दिल ये कहूँ भी तो कैसे कहूँ
रफ़्ता रफ़्ता मुहब्बत  हुई  आप से

गर मैं पर्दा करूँ भी तो क्योंकर करूँ
क्या छुपा जो छुपाऊँ अभी आप से

या ख़ुदा अब बुझे यह नहीं उम्र भर
प्रेम की है अगन जो लगी आप से

ठौर कोई नज़र और आता नहीं
दूर जाए न ’आनन’ कभी आप से

-आनन्द.पाठक-

शनिवार, 24 नवंबर 2018

चन्द माहिया : क़िस्त 55

चन्द माहिया : क़िस्त 55

1
जब जब घिरते बादल
प्यासी धरती क्यों
होने लगती पागल ?

:2:
भूले से कभी आते
मेरी दुनिया में
वादा तो निभा जाते

:3:
इस मन में उलझन है
धुँधला है जब तक
यह मन का दरपन है

:4:
जब छोड़ के जाना था
फिर क्यों आए थे ?
क्या दिल बहलाना था?

:5:
अब और कहाँ जाना
तेरी आँखों का
यह छोड़ के मयखाना

-आनन्द.पाठक-


शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

ग़ज़ल 108[51] : वक़्त सब एक सा नहीं होता---

एक ग़ज़ल :

2122---1212---22
वक़्त सब एक सा  नहीं होता
सुख हो दुख , देरपा नहीं होता

आदमी है,गुनाह  लाज़िम है
आदमी तो ख़ुदा  नहीं  होता

एक ही रास्ते से जाना  है
और फिर लौटना नहीं होता

किस ज़माने की बात करते हो
कौन अब बेवफ़ा नहीं  होता ?

हुक्म-ए-ज़ाहिद पे बात क्या कीजै
इश्क़ क्या है - पता नहीं  होता

लाख माना कि इक भरम है मगर
नक़्श दिल से जुदा नहीं होता

बेख़ुदी में कहाँ ख़ुदी ’आनन’
काश , उन से मिला नहीं होता

-आनन्द.पाठक- 

शुक्रवार, 2 नवंबर 2018

ग़ज़ल 107[01] : एक समन्दर मेरे अन्दर----

बह्र-ए-मुतक़ारिब असरम मक़ूज़ मक़्बूज़ सालिम अल आखिर
मूल   बह्र ------फ़ अ’ लु   -फ़ऊलु--फ़ऊलु---फ़ऊलुन
                          21---------121------121-------122
------------------------------

ग़ज़ल : एक समन्दर ,मेरे अन्दर...

एक  समन्दर ,  मेरे  अन्दर
शोर-ए-तलातुम बाहर भीतर

एक तेरा ग़म  पहले   से ही
और ज़माने का ग़म उस पर

तेरे होने का भी तसव्वुर
तेरे होने से है बरतर

चाहे जितना दूर रहूँ  मैं
यादें आती रहतीं अकसर

एक अगन सुलगी  रहती है
वस्ल-ए-सनम की, दिल के अन्दर

प्यास अधूरी हर इन्सां  की 
प्यासा रहता है जीवन भर

मुझको ही अब जाना  होगा   
वो तो रहा आने  से ज़मीं पर 

सोन चिरैया  उड़ जायेगी     
रह जायेगी खाक बदन पर   

सबके अपने  अपने ग़म हैं
सब से मिलना’आनन’ हँस कर

-आनन्द पाठक-

[सं 30-06-19]

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

ग़ज़ल 106 [05] : तुम भीड़ खरीदी देखे हो--

ग़ज़ल 106[05]

फ़अ’लुन--फ़अ’लुन--फ़अ’लुन--फ़अ’लुन-//-फ़अ’लुन--फ़अ’लुन--फ़अ’लुन--फ़अ’लुन
112---112--112---112 // 112--112--112--112
बह्र-ए-मुतदारिक़ मुसम्मन मख़्बून मुसक्कीन मुज़ाइफ़
------------------------------------------
तुम भीड़ ख़रीदी देखे हो ,जज्बात नहीं देखें होंगे
मुठ्ठी में बँधे इन शोलों के .असरात नहीं देखें होंगे

गरदन जो झुका के बैठे हैं , वो बेग़ैरत दरबारी है
सर बाँध कफ़न दीवानों के ,सदक़ात नहीं देखें होंगे

”भारत तेरे टुकड़े होंगे ,इन्शा अल्ला ,इन्शा अल्ला"
मासूम फ़रिश्तों सी शकलें ,जिन्नात नहीं  देखें होंगे

ये चेहरे और किसी के हैं .आवाज़ नहीं इनकी अपनी
परदे के पीछे साजिशकुन , बदज़ात  नहीं  देखें होंगे

जो बन्द मकां में रहते हैं , नफ़रत की गलियों में जीते
वो बाद-ए-सबा ,वो उलफ़त के ,बाग़ात नहीं देखें होंगे

भूखे मजलूमों की ताक़त ,शायद तुम ने जाना ही नहीं
बुनियाद हिला दें महलों के ,लम्हात नहीं देखें होंगे

गोली मैं नहीं होती ’आनन’ , कुछ प्यार में ताक़त होती है
पत्थर के शहर में फूलों के ,औक़ात नहीं देखे होंगे

-आनन्द.पाठक-
[सं 22-10-18]

शनिवार, 20 अक्तूबर 2018

चन्द माहिया : क़िस्त 54

चन्द माहिया : क़िस्त 54

:1:
शिकवा न शिकायत है
जुल्म-ओ-सितम तेरा
क्या ये भी रवायत है

:2:
यह ज़ोर-ए- सितम तेरा
कैसा है जानम !
निकला ही न दम मेरा

  :3:
जो होना था सो हुआ
अहल-ए-दुनिया से
छोड़ो भी गिला शिकवा



:4:
इतना ही बस माना
राह-ए-मुहब्बत से
घर तक तेरे जाना

:5:
यादें कुछ सावन की
तुम जो नहीं  आए
बस एक व्यथा मन की



-आनन्द पाठक--

मंगलवार, 9 अक्तूबर 2018

ग़ज़ल 105 [ 55] : वातनुकूलित आप ने आश्रम बना लिए---


ग़ज़ल 105 [55]


221---2121----1221----212

वातानुकूलित आप ने आश्रम बना लिए
सत्ता के इर्द-गिर्द ही धूनी रमा  लिए

’दिल्ली’ में बस गए हैं ’तपोवन’ को छोड़कर
’साधू’ भी आजकल के मुखौटे चढ़ा लिए

सब वेद ज्ञान श्लोक ॠचा मन्त्र  बेच कर
जो धर्म बच गया था दलाली  में खा लिए

आए वो ’कठघरे’ में न चेहरे पे थी शिकन
साहिब हुज़ूर जेल ही में  घर बसा लिए

ये आप का हुनर था कि जादूगरी कोई
ईमान बेच बेच के पैसा  कमा  लिए

गूँगों की बस्तियों में वो अन्धों की भीड़ में
खोटे तमाम जो भी थे सिक्के चला लिए

’आनन’ तुम्हारा मौन कि माना बहुत मुखर
लेकिन जहाँ था बोलना क्यों चुप लगा लिए

-आनन्द.पाठक-


शनिवार, 6 अक्तूबर 2018

ग़ज़ल 104 [04] : जड़ों तक साज़िशें गहरी---


1222---1222--1222--122
एक ग़ज़ल 104[04] : जड़ों तक साजिशें गहरी---


जड़ों तक सा ज़िशें गहरी ,सतह पे हादसे थे
जहाँ बारूद की ढेरी , वहीं  पर  घर  बने थे

हवा में मुठ्ठियाँ ताने  जो सीना  ठोकते थे
ज़रूरत जब पड़ी उनकी तो बस गरदन झुके थे

कि उनकी आदतें थी देखना बस आसमाँ ही
ज़मीं पाँवों के नीचे खोखली फिर भी खड़े थे

अँधेरा ले कर आए हैं ,बदल कर रोशनी को
वो अपने आप की परछाईयों  से यूँ   डरे थे

बहुत उम्मीद थी जिनसे ,बहुत आवाज़ भी दी
कि जिनको चाहिए था जागना .सोए हुए  थे

हमारी चाह थी ’आनन’ कि दर्शन आप के हों
मगर जब भी मिले हम आप से ,चेहरे चढ़े  थे

-आनन्द.पाठक--

शनिवार, 29 सितंबर 2018

ग़ज़ल 103[13] : हुस्न उनका जल्वागर था---

एक ग़ज़ल ----
2122---2122---212

हुस्न उनका जलवागर थ ,नूर था
"मैं" कहाँ था ? बस वही थे,’तूर’ था

होश में आया न आया ,क्या पता
बाद उसके उम्र भर मख़्मूर था

 रोशनी का एक पर्दा  सामने
पास आकर भी मैं कितना दूर था

एक लम्हे की सज़ा इक उम्र थी
वो तुम्हारा कौन सा दस्तूर था

अहल-ए-दुनिया का तमाशा देखना
क्या यही मेरे लिए मंज़ूर था ?

ख़ाक में मिलना था जब  वक़्त-ए-अजल
किस लिए इन्सां यहाँ मग़रूर था ?

राह-ए-उलफ़त में हज़ारों मिट गए
सिर्फ़ ’आनन’ ही नहीं मजबूर था

-आनन्द.पाठक-

[सं 30-06-19]

शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

ग़ज़ल 102[22] : पयाम-ए-उल्फ़त मिला तो होगा--

ग़ज़ल 102 : पयाम -ए-उलफ़त मिला तो होगा----

121--22/121-22/121-22/121-22

पयाम-ए-उल्फ़त मिला तो होगा ,न आने का कुछ बहाना होगा
मेरी अक़ीदत में क्या कमी थी ,सबब ये तुम को बताना होगा

जो एक पल की ख़ता हुई थी ,वो ऐसा कोई गुनाह कब थी
नज़र से तुमने गिरा दिया है,तुम्ही को आकर उठाना होगा

ख़ुदा के बदले सनमपरस्ती .ये कुफ़्र है या कि बन्दगी है
हद-ए-जूनूँ में ख़बर न होगी ,ज़रूर कोई दिवाना  होगा

मेरी मुहब्बत है पाक दामन ,रह-ए-मुक़्द्दस में  नूर-अफ़्शाँ
तो फिर ये पर्दा है किस से जानम,निक़ाब रूख से हटाना होगा

इधर है मन्दिर उधर मसाजिद ,कहीं कलीसा की चार बातें
सभी की राहें जो मुख़्तलिफ़ हैं ,तो क्या है यकसा ?बताना होगा

कहीं थे काँटे ,कहीं था सहरा, कहीं  था दरिया ,कहीं था तूफ़ां
कहाँ कहाँ से नहीं हूँ गुज़रा , ये राज़ तुमने न जाना होगा

रहीन-ए-मिन्नत रहूँगा ’आनन’,कभी वो गुज़रें अगर इधर से
अज़ल से हूँ मुन्तज़िर मैं उनका. न आएँ हैं वो, न आना होगा

-आनन्द.पाठक-

सं 07-02-2021

[सं 22-07-19]

शनिवार, 22 सितंबर 2018

ग़ज़ल 98[50] : कौन बेदाग़ है---


212---212---212---212
एक ग़ज़ल

कौन बेदाग़  मैला है दामन  नहीं ?
जिन्दगी में जिसे कोई उलझन नहीं ?

हर जगह पे हूँ मैं उसकी ज़ेर-ए-नज़र
मैं छुपूँ तो कहाँ ? कोई चिलमन नहीं

वो गले क्या मिले लूट कर चल दिए
लोग अपने ही थे कोई दुश्मन नहीं

घर जलाते हो तुम ग़ैर का शौक़ से
क्यों जलाते हो अपना नशेमन नहीं ?

बात आकर रुकी बस इसी बात पर
कौन रहजन है या कौन रहजन नहीं

सारी दुनिया ग़लत आ रही है नज़र
साफ़ तेरा ही मन का है दरपन नहीं

इस चमन को अब ’आनन’ ये क्या हो गया
अब वो ख़ुशबू नहीं ,रंग-ए-गुलशन नहीं

-आनन्द.पाठक--

शनिवार, 15 सितंबर 2018

चन्द माहिया : क़िस्त 56

चन्द माहिया  :क़िस्त 56

:1:
ये कैसी माया है
तन तो है अपना
मन तुझ में समाया है

:2:
इस फ़ानी हस्ती पर
दाँव लगाए ज्यों
कागज़ की कश्ती पर
:3:
ये कैसा रिश्ता है
ओझल है फिर भी
दिल रमता रहता है

:4:
बेचैन बहुत है दिल
कब तक मैं तड़पूं
अब तो बस आकर मिल

:5:
अन्दर की सब बातें 
लाख छुपाओ तुम
कह देती हैं आँखें


-आनन्द.पाठक-

शनिवार, 8 सितंबर 2018

ग़ज़ल 101[49] : झूठ का जब धुआँ --


एक ग़ज़ल :
212---212---212---212
फ़ाइलुन---फ़ाइलुन---फ़ाइलुन---फ़ाइलुन
---------------------------

झूठ का  ये धुआँ जब घना हो गया
सच  यहाँ बोलना अब मना हो गया

आईने को ही फ़र्ज़ी बताने लगे
आइने से कभी सामना हो गया

रहबरी भी तिजारत हुई आजकल
जिसका मक़सद ही बस लूटना हो गया

जिसको देखा नहीं जिसको जाना नहीं
क्या कहें ,दिल उसी पे फ़ना हो गया

रफ़्ता रफ़्ता वो जब याद आने लगे
बेख़ुदी में ख़ुदी  भूलना हो गया

रंग चेहरे का ’आनन’ उड़ा किसलिए ?
ख़ुद का ख़ुद से कहीं सामना हो गया ?

-आनन्द.पाठक-

[सं0 25 -09-18]

सोमवार, 3 सितंबर 2018

चन्द माहिया : क़िस्त 53

चन्द माहिया  :क़िस्त 53

:1:
 क़िस्मत की बातें हैं 
कुछ को ग़म ही ग़म
कुछ को  सौग़ातें  हैं

:2:
कब किसने माना है
आज नहीं तो कल
सब छोड़ के जाना है

:3:
कब तक भागूँ मन से
देख रहा कोई
छुप छुप कर चिलमन से

:4:
कब दुख ही दुख रहता
किसके जीवन में
बस सुख ही सुख रहता ?

5
लगनी है तो ,लगती
आग मुहब्बत की
लगने पे नही बुझती


-आनन्द.पाठक-

शनिवार, 25 अगस्त 2018

ग़ज़ल 100 [48]: आँख मेरी भले अश्क से नम नहीं

गजल
212--212--212--212

आँख मेरी भले अश्क से नम नहीं
दर्द मेरा मगर आप से  कम नहीं

ये चिराग--मुहब्बत बुझा दे मेरा
आँधियों मे अभी तक है वो दम नहीं

इन्कलाबी हवा हो अगर पुर असर
कौन कहता है बदलेगा मौसम नहीं

पेश वो भी खिराज़--अक़ीदत किए
जिनकी आँखों मे पसरा था मातम नहीं

एक तनहा सफर में रहा उम्र  भर
हम ज़ुबाँ भी नही कोई हमदम नहीं

तन इसी ठौर है मन कहीं और है
क्या करूँ मन ही काबू में,जानम नहीं

ये तमाशा अब 'आनन' बहुत हो चुका
सच बता, सर गुनाहों से क्या ख़म नहीं?


-आनन्द पाठक-

सोमवार, 20 अगस्त 2018

गीत 19 : नेता बन जाओगे प्यारे--


एक व्यंग्य गीत :- नेता बन जाओगे प्यारे-----😀😀😀😀😀
पढ़-लिख कर भी गदहों जैसा व्यस्त रहोगे

नेता बन जाओगे ,प्यारे ! मस्त रहोगे

कौए ,हंस,बटेर आ गए हैं कोटर में
भगवत रूप दिखाई देगा अब ’वोटर’ में

जब तक नहीं चुनाव खतम हो जाता प्यारे
’मतदाता’ को घुमा-फिरा अपनी मोटर में
सच बोलोगे आजीवन अभिशप्त रहोगे
नेता बन जाओगे ,प्यारे ! मस्त रहोगे

गिरगिट देखो , रंग बदलते कैसे कैसे
तुम भी अपना चोला बदलो वैसे वैसे
दल बदलो बस सुबह-शाम,कैसी नैतिकता?
अन्दर का परिधान बदलते हो तुम जैसे
’कुर्सी,’पद’ मिल जायेगा आश्वस्त रहोगे
नेता बन जाओगे ,प्यारे ! मस्त रहोगे

अपना सिक्का सही कहो ,औरों का खोटा
थाली के हो बैगन ,बेपेंदी का लोटा
बिना रीढ़ की हड्डी लेकिन टोपी ऊँची
सत्ता में है नाम बड़ा ,पर दर्शन छोटा

’आदर्शों’ की गठरी ढो ढो ,त्रस्त रहोगे
नेता बन जाओगे ,प्यारे ! मस्त रहोगे

नेता जी की ’चरण-वन्दना’ में हो जब तक
हाथ जोड़ कर खड़े रहो बस तुम नतमस्तक
’मख्खन-लेपन’ सुबह-शाम तुम करते रहना
छू न सकेगा ,प्यारे ! तुमको कोई तब तक

तिकड़मबाजी,जुमलों में सिद्ध हस्त रहोगे
नेता बन जाओगे ,प्यारे ! मस्त रहोगे

जनता की क्या ,जनता तो माटी का माधो
सपने दिखा दिखा के चाहो जितना बाँधो
राम नाम की ,सदाचार की ओढ़ चदरिया
जितना करना ’कदाचार’ हो कर लो ,साधो !

सत्ता की मधुबाला पर आसक्त रहोगे
नेता बन जाओगे ,प्यारे ! -----------

-आनन्द.पाठक-