शनिवार, 20 अप्रैल 2019

ग़ज़ल 118[57]: रँगा चेहरा है उसका---

बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन महज़ूफ़
1222---------1222-----1222-------122
मुफ़ाईलुन---मुफ़ाईलुन---मुफ़ाईलुन--फ़ऊलुन
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एक ग़ज़ल : रँगा चेहरा है उसका--

रँगा चेहरा है उसका, हाथ कीचड़ में सना है
उसे क्या और करना, दूसरो पर फ़ेंकना  है

वो अपने झूठ को भी बेचता है सच बता कर
चुनावी दौर में बस झूठ का बादल  घना है

अकेला ही खड़ा है जंग के मैदान में  जो
हज़ारों तीर का हर रोज़ करता  सामना है

नज़र नापाक किसकी लग गई मेरे चमन को
बचाएँ किस तरह इसको, सभी को सोचना है

जुबाँ ऐसी नहीं थी आप की पहले कभी  तो
अदब से बोलना भी क्या चुनावों में मना है ?

उन्हे फ़ुर्सत कहाँ है जो कि सुनते हाल मेरा
उन्हें तो "चोर-चौकीदार" ही बस खेलना है

नहीं करता है कोई बात खुल कर अब तो ’आनन’
जमी है धूल  सब के आइनों पर ,पोछना है

-आनन्द पाठक-

सोमवार, 15 अप्रैल 2019

ग़ज़ल 117[56] : कहाँ आवाज़ होती है--

बहर-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम
मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन--मफ़ाईलुन
1222----------1222---------1222--------1222
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एक ग़ज़ल : कहाँ आवाज़ होती है--


कहाँ आवाज़ होती है कभी जब टूटता है दिल
अरे ! रोता है क्य़ूँ प्यारे ! मुहब्बत का यही हासिल

मुहब्बत के समन्दर का सफ़र काग़ज़ की कश्ती में
फ़ना ही इसकी क़िस्मत है, नहीं इसका कोई साहिल

’मुहब्बत का सफ़र आसान है”- तुम ही तो कहते थे
अभी है  इब्तिदा प्यारे ! सफ़र आगे का है मुश्किल

समझ कर क्या चले आए, हसीनों की गली में तुम
गिरेबाँ चाक है सबके ,यहाँ हर शख़्स है  साइल

तरस आता है ज़ाहिद के तक़ारीर-ओ-दलाइल पर
नसीहत सारे आलम को खुद अपने आप से गाफ़िल

कलीसा हो कि बुतख़ाना कि मस्जिद हो कि मयख़ाना
जहाँ दिल को सुकूँ हासिल हो अपनी तो वही मंज़िल

न जाने क्या समझते हो तुम अपने आप को ’आनन’
जहाँ में है सभी नाक़िस यहाँ कोई नहीं कामिल


-आनन्द.पाठक-

रविवार, 14 अप्रैल 2019

ग़ज़ल 116 : वो रोशनी के नाम से डरता है--

बह्र-ए-मुज़ारे मुसम्मन  अख़रब मकफ़ूफ़ महज़ूफ़
221----2121----1221-----212
मफ़ऊलु---फ़ाइलातु---मफ़ाईलु---फ़ाइलुन
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एक ग़ज़ल : वो रोशनी के नाम से --

वो रोशनी के नाम से  डरता  है आजतक
जुल्मत की हर गली से जो गुज़रा है आजतक

बढ़ने को बढ़ गया है किसी ताड़ की तरह
बौना हर एक शख़्स को समझा है आजतक

सब लोग हैं कि भीड़  का हिस्सा बने हुए
"इन्सानियत’ ही भीड़  में तनहा है आजतक

हर पाँच साल पे वो नया ख़्वाब बेचता
जनता को बेवक़ूफ़ समझता  है आजतक

वो रोशनी में  तीरगी ही ढूँढता  रहा
सच को हमेशा झूठ ही माना है आजतक

वैसे तमाम और   मसाइल  थे   सामने
’कुर्सी’ की बात सिर्फ़ वो करता है आजतक

 हर रोज़ हर मुक़ाम पे खंज़र के वार थे
’आनन’ ख़ुदा की मेह्र से  ज़िन्दा है आजतक

-आनन्द पाठक-

[सं 14-04-19]

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019

ग़ज़ल 115 [24[]: बेसबब उसको मेह्रबाँ देखा--

 ग़ज़ल 115 [24]

2122---1212---22
फ़ाइलातुन--मुफ़ाइलुन--- फ़ेलुन

बेसबब उसको मेह्रबाँ  देखा
जब भी देखा तो बद्गुमाँ देखा

पास पत्थर की थी दुकां ,देखी
जब भी शीशे का इक मकां देखा

जिसको "कुर्सी’ अज़ीज होती है
 उसको बिकते हुए यहाँ देखा

क़स्में खाता है वो निभाने की
पर निभाते हुए कहाँ   देखा

जब कभी ’रथ’ उधर से गुज़रा है
बाद  बस देर तक धुआँ  देखा

वक़्त का  जो था  ताजदार कभी
उसका मिटते  हुए निशां  देखा

सच को ढूँढें कहाँ, किधर ’आनन’
झूठ का बह्र-ए-बेकराँ  देखा

=आनन्द.पाठक-

[बह्र-ए-बेकरां = अथाह सागर]


[सं 12-04-19]

मंगलवार, 9 अप्रैल 2019

ग़ज़ल 114 [22] : आदमी से कीमती हैं ---


ग़ज़ल 114 [22]

एक ग़ज़ल : आदमी से कीमती हैं कुर्सियां
2122-----------2122---------212-
फ़ाइलातुन---फ़ाइलातुन---फ़ाइलुन

आदमी से कीमती हैं कुर्सियाँ
कर रहे टी0वी0 पे मातमपुर्सियाँ

आग नफ़रत की लगा कर आजकल
सेंकते है अपनी  अपनी  रोटियाँ

मौसम-ए-गुल कैसे आएगा भला
जब तलक क़ायम रहेंगी तल्खियाँ

धार ख़ंज़र की नहीं पहचानती
किसकी हड्डी और किसकी पसलियाँ

दे रहें धन राशि  राहत कोष  से
जो जलाए थे हमारी  बस्तियाँ

आदमी की लाश गिन गिन कर वही
गिन रहें संसद भवन की सीढ़ियाँ

पीढ़ियों  का कर्ज़  ’आनन’ भर रहा
एक पल की थी किसी की ग़लतियाँ

-आनन्द.पाठक-
[सं 09-04-19]