शनिवार, 18 मई 2019

ग़ज़ल 120 [26] : दुनिया से जब चलूँ मैं--

221---2122  //221--2122

एक ग़ज़ल : दुनिया से जब चलूँ मैं--

दुनिया से जब चलूँ मैं  ,पीड़ा मेरी  घनी हो=
इक हाथ पुस्तिका  हो .इक हाथ  लेखनी हो

सूली पे रोज़ चढ़ कर ,ज़िन्दा रहा हूँ कैसे
आएँ कभी जो घर पर,यह रीति  सीखनी हो

हर दौर में रही है ,सच-झूठ की लड़ाई
तुम ’सच’ का साथ देना,जब झूठ से ठनी हो

बेचैनियाँ हों दिल में ,दुनिया के हों मसाइल
याँ मैकदे में  आना .खुद से न जब बनी  हो

नफ़रत से क्या मिला है, बस तीरगी  मिली है
दिल में हो प्यार सबसे , राहों में रोशनी हो

चाहत यही रहेगी ,घर घर में  हो दिवाली
जुल्मत न हो कहीं पर ,न अपनों से दुश्मनी हो

माना कि है फ़क़ीरी ,फिर भी बहुत है दिल में
’आनन’ से बाँट  लेना , उल्फ़त जो बाँटनी हो


-आनन्द.पाठक-

1 टिप्पणी:

Pawan Kumar ने कहा…

बहुत अच्छा लिखा है आपने