ग़ज़ल् 436 [10-]
212---212---212---212--
उसकी नज़रों में वैसे नहीं कुछ् कमी
क्यों उज़ालों में उसको दिखे तीरगी ।
तुम् सही को सही क्यों नहीं मानते
राजनैतिक कहीं तो नहीं बेबसी ?
दाल में कुछ तो काला नज़र आ रहा
कह रही अधजली बोरियाँ ’नोट’ की
लाख अपनी सफ़ाई में जो भॊ कहॊ
क्या बिना आग का यह धुआँ है सही ?
आजतक किस गुनह्गार ने है कहा-
’मैं गुनह्गार हूँ और दुनिया सही’ ।
क़ौम आपस में जबतक लड़े ना मरे
रोटियाँ न सिकें, व्यर्थ है ’लीडरी’
तुमको ’आनन’ किसी पर भरोसा नहीं
कैसे काटोगे बाक़ी बची ज़िंदगी ।
-आनन्द.पाठक-