बुधवार, 26 मार्च 2025

ग़ज़ल् 436 [10-] : उसकी नज़रों में वैसे नहीं कुछ कमी

 ग़ज़ल् 436 [10-]

212---212---212---212--


उसकी नज़रों में वैसे नहीं कुछ् कमी

क्यों उज़ालों में उसको दिखे तीरगी ।


तुम् सही को सही क्यों नहीं मानते

राजनैतिक कहीं तो नहीं बेबसी ?


दाल में कुछ तो काला नज़र आ रहा

कह रही अधजली बोरियाँ ’नोट’ की


लाख अपनी सफ़ाई में जो भॊ कहॊ

क्या बिना आग का यह धुआँ है सही ?


आजतक किस गुनह्गार ने है कहा-

’मैं गुनह्गार हूँ और दुनिया सही’ ।


क़ौम आपस में जबतक लड़े ना मरे

रोटियाँ न सिकें, व्यर्थ है ’लीडरी’


तुमको ’आनन’ किसी पर भरोसा नहीं

कैसे काटोगे बाक़ी बची ज़िंदगी ।


-आनन्द.पाठक-


अनुभूतियाँ 180/67

 अनुभूतियाँ 180/67

मंगलवार, 25 मार्च 2025

अनुभूतियाँ 179/66

 अनुभूतियाँ 179/66

713

सत्य कहाँ तक झुठलाओगे

छुपता नहीं, न दब पाएगा ।

ख़ुद को धोखा कब तक दोगे

झूठ कहाँ तक चल पाएगा ।


714

सुख दुख चलते साथ निरन्तर

जबतक जीवन एक सफ़र है

जितना उलझन मन के बाहर

अधिक कहीं मन के अंदर है।


715

वक़्त गुज़रने को गुज़रेगा

भला बुरा या चाहे जैसा

ज़ोर नहीं जो अगर तुम्हारा

ढलना होगा तुमको वैसा


716

क्या करना है तुमको सुन कर

कैसी गुज़र रही है मुझ पर

शायद तुमको खुशी न होगी
ज़िंदा रहता हूँ मर मर कर


-आनन्द.पाठक-