ग़ज़ल 438 [ 12-]
1222---1222---1222---122
हमारी दास्ताँ में ही तुम्हारी दास्ताँ है
हमारे ग़म बयानी में तुम्हारा ग़म बयाँ है ।
गुजरने को गुज़र जाता समय जैसा भी हो चाहे
मगर हर बार दिल पर छोड़ जाता इक निशाँ है ।
सभी को देखता है वह हिक़ारत की नज़र से
अना में मुबतिला है आजकल वो बदगुमाँ है ।
मिटाना जब नहीं हस्ती मुहब्बत की गली में
तो क्यों आते हो इस जानिब अगर दिल नातवाँ है।
जो आया है उसे जाना ही होगा एक दिन तो
यहाँ पर कौन कहता है वो उम्र-ए-जाविदाँ है ।
सभी हैं वक़्त के मारे, सभी हैं ग़मजदा भी
मगर उम्मीद की दुनिया अभी क़ायम जवाँ है।
जमाने भर का दर्द-ओ-ग़म लिए फिरते हो ’आनन’
तुम्हारा खुद का दर्द-ओ-ग़म कही क्या कम गिराँ है।
-आनन्द पाठक-
कम गिराँ है = कम भारी है, कम बोझिल है