गुरुवार, 14 मई 2009

ग़ज़ल 01[65] : चांदी की तश्तरी में

ग़ज़ल 01 [65]

221-----2122---//  221-----2122
बह्र-ए-मुज़ारिअ मुसम्मन अख़रब
मफ़ऊलु---फ़ाइलातुन..// मफ़ऊलु---फ़ाइलातुन
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चाँदी की तश्तरी में ,नज़राने कब महल के ?
शामिल मेरी क़लम में, कुछ दर्द हैं ग़ज़ल के

किस को मिली यहाँ है ,इक ज़िन्दगी मुकम्मल
दो चार दिन खुशी के ,बाक़ी हैं  सब ख़लल के

दुनिया हसीन लगती ,देखा जो तूने होता
अपनी अना से बाहर ,आता कभी निकल के

वादे ,वफ़ा ,मुहब्बत ,बातें हैं सब किताबी
आदाब दो दिनों के, होते हैं आजकल के

दिल को न था गवारा, ले दाग़दार दामन 
आते तुम्हारे दर पर ,क्यों भेष हम बदल के

बेदार जो भी देखा , इक ख़्वाब था भरम था
 अब  देखना हक़ीक़त , है राह-ए-मर्ग चल के

तेरी गली में ’आनन’,फिसलन तो कम नहीं है
 फिर भी मैं आ रहा हूँ, बच कर सँभल सँभल के


-आनन्द.पाठक-

सं  26-07-2020 /10-07-21/

शब्दार्थ 
राह-ए- मर्ग  = मृत्य मार्ग पर
baab-e-sukhan 230121

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