शनिवार, 19 जून 2010

एक ग़ज़ल 14 : जहां पे तुम्हारे सितम ....

फ़ऊलुन ---फ़ऊलुन---फ़ऊलुन--फ़ऊलुन
122-----------122---------122--------122
बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
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ग़ज़ल : जहाँ पर तुम्हारे सितम .....

जहाँ भी तुम्हारे सितम बोलते हैं
वहीं फिर हमारे क़लम बोलते हैं

 इजाज़त नहीं है ,जहाँ बोलने की
निगाहों से रंज-ओ-अलम बोलते हैं

ज़माने को ठोकर में रखने की चाहत
ये मन के तुम्हारे भरम बोलते हैं

किसी बेजुबाँ की जुबाँ बन के देखो
शब-ओ-रोज़ क्या अश्क-ए-नम बोलते हैं

जहाँ सर झुकाया ,वहीं काबा ,काशी
मुहब्बत को दैर-ओ-हरम बोलते हैं

बड़ी देर से है अजब हाल "आनन"
न वो बोलते हैं ,न हम बोलते हैं

-आनन्द.पाठक--
[सं 19-05-18]

1 टिप्पणी:

रंजना ने कहा…

जहाँ पर तुम्हारे सितम बोलते हैं
वहीं पर हमारे क़लम बोलते हैं

जहाँ बोलने की इजाज़त नहीं है
निगाहों से रंज-ओ-अलम बोलते हैं !!

वाह...क्या बात कही....

सभी के सभी शेर लाजवाब....
बहुत ही सुन्दर रचना...