मंगलवार, 9 जुलाई 2013

गीत 45: परदे के पीछे से...

एक गीत

परदे के पीछे से छुप कर ,मन ही मन शरमाती क्यों हो?
पायल फिर खनकाती क्यों हो ?


माटी से ही अगर बनाया ,माटी में क्यों मिला दिया है ?
मेरे आराधन को बोलो तुमने कैसा सिला दिया है ?
कैसा खेल रचाया तुमने , कैसी मुझको सज़ा मिली है ?
नज़रों में जब बसा लिया था, दिल से फिर क्यों भुला दिया है ?


मेरा दर्द नहीं सुनना तो अपना दर्द सुनाती क्यों हो ?
हुँक्कारी भरवाती क्यों हो ?


जितना सीधा सोचा था पर उतनी सीधी नहीं डगरिया
आजीवन भरने की कोशिश,फिर भी खाली रही गगरिया
दूर क्षितिज के पार गगन से करता रहा इशारा कोई
ढलने को जब शाम हो चली ,अब तो आजा मेरी नगरिया


काट चिकोटी मुझको ,हँस कर दूर खड़ी हो जाती क्यों हो ?
मुझको व्यर्थ सताती क्यों हो?


कितना चाहा रूप तुम्हारा शब्दों में कुछ ढाल सकूँ मैं
अल्हड़ यौवन पे था चाहा प्रेम चुनरिया डाल सकूँ मैं
गर्दन झुका के पलक झुकाना माना नहीं निमन्त्रण,फिर भी
चाहत ही रह गई अधूरी प्रणय दीप कि बाल सकूँ मैं


रह रह कर साने से अपने आँचल फिर सरकाती क्यों हो ?
अपने होंठ दबाती क्यों हो?


[हुँकारी = अपने समर्थन में ’हाँ’ हूँ’ करवाना]


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