बुधवार, 4 सितंबर 2013

एक ग़ज़ल 52[35] : गो धूप तो हुई है...

221---2122 // 221--2122

गो धूप तो हुई है , पर ताब वो नहीं है
जो ख़्वाब हमने देखा ,ये ख़्वाब वो नहीं है

मजलूम है कि माना,ख़ामोश रहता अकसर
पर बे-नवा नहीं है ,बे-आब वो नहीं है

कुछ मगरिबी हवाओं का पुर-असर है शायद
फ़सलें नई नई हैं ,आदाब वो नहीं है

अपनी लहू से सींचे हैं जांनिसारी कर के
आई बहार लेकिन शादाब वो नहीं है

एहसास-ए-हिर्स-ओ-नफ़रत,अस्बाक़-ए-तर्क़-ए-उलफ़त
मेरी किताब-ए-हस्ती में बाब वो नहीं है

इक नूर जाने किसकी दिल में उतर गई है
एहसास तो यक़ीनन ,पर याब वो नहीं है

ता-उम्र मुन्तज़िर हूँ दीदार-ए-यार का मैं
बेताब जितना "आनन",बेताब वो नहीं है

शब्दार्थ
ताब = गर्मी ,चमक
बे-नवा= बिना आवाज़ के
बे-आब= बिना इज्ज़त के
मगरिबी [हवा]= पश्चिमी [सभ्यता]
जांनिसारी =प्राणोत्सर्ग
आदाब =तमीज-ओ-तहज़ीब
शादाब = हरी भरी ,ख़ुशहाली
एहसास-ए-हिर्स-ओ-नफ़रत,अस्बाक़-ए-तर्क़-ए-उलफ़त= लालच औत नफ़रत की अनुभूति और प्यार मुहब्बत के छोडने/भुलाने के सबक़]
बाब = अध्याय [chapter]
मेरी किताब-ए-हस्ती में=मेरे जीवन की पुस्तक में
मुन्तज़िर = प्रतीक्षक
याब =प्राप्य

-आनन्द.पाठक
09413395592

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
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