शनिवार, 13 दिसंबर 2014

चन्द माहिया : क़िस्त 11


;1:

उल्फ़त की राहों से

कौन नहीं गुज़रा
मासूम गुनाहों से

:2:

आँसू न कहो इसको
एक हिकायत है
चुपके से पढ़ो इसको

:3:

कुछ वस्ल की बातों में
उम्र कटी मेरी
कुछ हिज्र की रातों में

:4:

ये किसकी निगहबानी
हुस्न है बेपरवाह
और इश्क़ की नादानी

:5:

तेरी चाल शराबी है
क्यूँ न बहक जाऊँ
मौसम भी गुलाबी है


-आनन्द पाठक

[सं 09-06-18]

रविवार, 26 अक्तूबर 2014

चन्द माहिया : क़िस्त 10



:1: 

रंगोली आँगन की
देख रही राहें
छुप छुप कर साजन की

:2:


धोखा ही सही ,माना

अच्छा लगता है 
तुम से धोखा खाना

:3:


औरों से रज़ामन्दी

महफ़िल में  तेरी 
मेरी ही जुबांबन्दी ?

:4:


माटी से बनाते हो 

क्या मिलता है जब
माटी में मिलाते हो ?

:5:


सच ,वो, न नज़र आता 

कोई है दिल में
जो राह दिखा  जाता 

-आनन्द.पाठक-

[सं 15-06-18]


बुधवार, 22 अक्तूबर 2014

मुक्तक 04/04 D

:1;
बदली हुई हवा है ज़माना बदल गया
ऎ यार मेरे अब तो मुहब्बत की बात कर
नफ़रत है तेरी सोच में पहले इसे बदल
करनी है तुझको तो उल्फ़त की बात कर


:2:

कौन सा है जो ग़म दिल पे गुज़रा नहीं
बारहा टूट कर भी  हूँ   बिखरा   नहीं
क्यों मुझे हो खबर क्या है सूद-ओ-ज़ियाँ
इश्क़ का ये नशा है जो  उतरा नहीं

;3:

जब कभी अपनी ज़ुबां वो खोलता है
झूठ ही बस झूठ हरदम  बोलता है
जानता वो झूठ क्या है और सच क्या
वो फ़िज़ां में ज़ह्र फिर क्यों घोलता है ?



   :4:
दावा करते हैं वो सूरज नया निकलने का
नई दिशा में ,नई राह पर लेकर चलने का
लेकिन काली रात अभी तो ढली नहीं, साथी !
थमा नहीं है अभी सिलसिला बेटी जलने का


-आनन्द.पाठक-

शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

एक ग़ज़ल 63 : तलाश जिसकी थी...



1212--1122--1212--22

तलाश जिसकी थी वो तो नहीं मिला,फिर भी
उसी की याद में ये दिल है मुब्तिला फिर भी

हज़ार तौर तरीक़ों से  आज़माता है 
क़रीब आ के वो रखता है फ़ासिला फिर भ

अभी तो आदमी, इन्सान बन नहीं पाया
अज़ल से चल रहा पैहम ये काफ़िला फिर भी

चिराग़ लाख बुझाओ, न रुक सकेगा ये  
नए चिराग़ जलाने का सिलसिला फिर भी

लबों की प्यास अभी तक नहीं बुझी साक़ी
पिला चुका है बहुत और ला पिला फिर भी

गया वो छोड़ के जब से ,चमन है वीराना
जतन हज़ार किए दिल नहीं खिला फिर भी

बहुत सही हैं ज़माने की तलखियाँ "आनन’
हमारे दिल में किसी से नहीं गिला फिर भी


शब्दार्थ
मुब्तिला  = ग्रस्त 
अज़ल   = अनादि  काल 
पैहम   = निरन्तर ,लगातार
तल्ख़ियां = कटु अनुभव

-आनन्द.पाठक-

[सं 30-06-19]

मंगलवार, 23 सितंबर 2014

चन्द माहिया : क़िस्त 09

                                    चन्द माहिया : क़िस्त 09

    :01:


दुनिया के ताने क्यूँ

प्यार अगर सच है
मिलने में बहाने क्यूँ


    :02:


मन में  है वृन्दावन

साँसों में राधा
हर साँस में मनमोहन


    ;03:


सौ बार कहा हमने

भूल उसे जाओ
कब बात सुनी ग़म ने

    :04:


जो बात लबों पर है

 कहना है कह दो
किस बात का अब डर है

     :05:


मुश्किल से मिली हो तुम

बाँहों में आ कर
 रहती हो क्यों गुमसुम



-आनन्द.पाठक


[सं 15-06-18]

बुधवार, 10 सितंबर 2014

चन्द माहिया : क़िस्त 08



:01:

कुछ याद तुम्हारी है

उस से ही दुनिया
आबाद हमारी है

;02:


जब तक कि सँभल पाता

राह-ए-उल्फ़त में
ठोकर हूँ नया खाता

:03:


लहराओ न यूँ आँचल

दिल का भरोसा क्या
हो जाय न फिर पागल

;04:


जीने का ज़रिया था

सूख गया वो भी
जो प्यार का दरिया था

:05:


गिरते न बिखरते हम

काश ! सफ़र में तुम
चलते जो साथ सनम

-आनन्द.पाठक



[सं 15-06-18]

सोमवार, 1 सितंबर 2014

चन्द माहिया : क़िस्त 07



::1::
ये हुस्न तो फ़ानी है
फिर कैसा पर्दा
दो दिन की कहानी है

::2::

कुछ ग़म की रात रही
साथ में  रुसवाई
हासिल सौगात रही

::3::

इतना तो बता देते
क्या थी  ख़ता मेरी
फिर जो भी सजा देते

::4::

क्यों दुनिया  के डर  से 
लौट गए थे तुम 
आकर भी मेरे दर से

::5::


जब से है तुम्हें देखा

 देख रहा हूँ मैं
इन हाथों की रेखा


-आनन्द.पाठक-

[सं0 15-06-18]



शनिवार, 23 अगस्त 2014

गीत 56 : यूँ ही नज़रें झुका कर न ...

एक गीत :


यूँ ही नज़रें झुका कर न बैठी रहो
कुछ तो बातें करो दिल बहल जायेगा

वो अदायें तुम्हारी कहाँ खो गईं
जो ज़माने की चालों से थीं बेख़बर
वो महकता बदन और ज़ुल्फ़े खुली
वो क़दम लड़खड़ाते इधर से उधर

याद आती कुलाचें जो  हिरनी सी थीं
आज भी दिल सँभालू ,फ़िसल जायेगा

लोग चेहरे पे चेहरे चढ़ाए  हुए
ये शहर अजनबी है ,न हँस कर मिलो
कोई रुकता नहीं है किसी के लिए
तेज़ रफ़्तार है तुम भी चलती चलो

मन का दरपन हमेशा दमकता रहे
रूप क्या? रंग क्या? ये तो ढल जायेगा

इक जनम भी सनम होगा काफी नहीं
इतनी बातें है कितनी सुनाऊँ  तुम्हें
ये मिलन की घड़ी उम्र बन जाये तो
एक-दो  गीत कहो तो सुना दूँ  तुम्हें

मौत भी आ गई तो ठहर जायेगी
दो घड़ी को इरादा बदल जायेगा

ज़िन्दगी भी अजब इक पहेली रही
जितनी सुलझाई उतनी उलझती गई
जैसी चाही थी वैसी मिली ही नहीं
जो मिली भी तो वो भी बिखरती गई

कौन कहता है दिल मेरा पत्थर सा है
प्यार से छू के देखो ,पिघल जायेगा

साथ चलते हुए दूर तक आ गये
लौट कर अब तो जाना है मुमकिन नहीं
शाम होने लगी दीप जलने लगे
दो घड़ी भी हो जीना तो तुम बिन नहीं

साँस में साँस ऐसी घुली है ,कि तुम
जब भी चाहो मिरा दम निकल जायेगा

आने वाली नई पीढ़ियों के लिए
"प्रेम होता है क्या?:- इक इबारत लिखें
चीज़ बाजार में है ये बिकती नहीं
ये तिजारत नहीं है ,ज़ियारत लिखें

ये मुहब्बत इबादत से है कम नहीं
पाँव बहके अगर तो सँभल जायेगा

यूँ ही नज़रें झुका कर न .....


-आनन्द.पाठक-
8800927181

बुधवार, 20 अगस्त 2014

चन्द माहिया : क़िस्त 06

   :1:

ख़ुद से कुछ कहता है
तनहाई में दिल
जब खोया रहता है ?

   :2:
फिर लौट के कब आना
आज नहीं तो कल 
इक दिन तो हमें  जाना

   :3:

परदा ये उठाना है
आस बँधी तुम से
जीने का बहाना है

   :4:

जो दर्द हैं जीवन के
कह देते हैं सब
दो आँसू विरहन के

   :5:

ख़ंज़र से न गोली से
नफ़रत मरती है
इक प्यार की बोली से

-आनन्द पाठक-

[सं0 15-06-18]

मंगलवार, 19 अगस्त 2014

मुक्तक 03/01 D



:1:
दर्द के गीत गाता  रहा
मन ही मन मुस्कराता रहा
आँसुओं ने बयां कर दिया
वरना मैं तो छुपाता रहा 

:2:

दिल खिलौना समझ ,तोड़ कर
चल दिए तुम मुझे  छोड़ कर
मैं खड़ा हूँ  वहीं   आज तक
ज़िन्दगी के उसी  मोड़  पर 

:3:

हाल पूछो न मेरी हस्ती का
सर पे इलजाम बुत परस्ती का
उसको ढूँढा ,नहीं मिला मुझको
क्या गिला करते अपनी पस्ती का

:4:/01

लोग बैसाखियों के सहारे चले
जो चले भी किनारे किनारे चले
सरपरस्ती न हासिल हुई थी जिसे
वो समन्दर में कश्ती उतारे चले

xx       xx      xx

-आनन्द.पाठक--


मंगलवार, 12 अगस्त 2014

गीत 55 : तुम ’अहं’ की टोकरी...



तुम अहं की टोकरी  सर पर उठाए कब तलक
स्वयं की दुनिया बना कर ,स्वयं को छलते रहोगे

आईना तो आईना है ,सच है तो सच ही कहेगा
जो मुखौटा है तुम्हारा , वो मुखौटा  ही रहेगा
लाख भगवा वस्त्र पहनो या तिलक छापा लगा लो
जो तुम्हारा कर्म या दुष्कर्म है  ख़ुद ही कहेगा

सत्य की अवहेलना कर ,झूठ को स्वीकार करना
कब तलक तुम स्वयं की जयकार जय करते रहोगे

तुम भले ही जो कहो पर मन तुम्हारा जानता है
किस धुँए के पार्श्व में क्या सत्य है  पहचानता है
सोच गिरवी रख दिए प्रतिबद्धता के नाम पर जब
कब उजाले को उजाला दिल तुम्हारा  मानता है

खिड़कियाँ खोलो कि देखो रुत बदलने लग गई
बन्द कमरे की घुटन में कब तलक सड़ते रहोगे

आँकड़ों के रंग भर ,रंगीन तस्वीरें  सजा कर
और सूनी आँख में फिर कुछ नए सपने जगा कर
अस्मिता का प्रश्न है ,लाशें लटकती पेड़ पर जब
भूल जाते हैं उसे फिर ,प्रश्न  ’संसद’ में उठा कर

शब्द की जादूगरी से नित तिलस्मी जाल बुन कर
आम जनता को कहाँ तक ,कब तलक छलते रहोगे

-आनन्द.पाठक-

मंगलवार, 22 जुलाई 2014

एक सूचना : मैं नहीं गाता हूँ ....[गीत ग़ज़ल संग्रह]


मित्रो !

आप सभी को सूचित करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है कि आप लोगों के आशीर्वाद व प्रेरणा से मेरी चौथी किताब "मै नहीं गाता हूँ....." [ गीत गज़ल संग्रह] सद्द: प्रकाशित हुई है
3-किताबें जो प्रकाशित हो चुकी हैं

1  -शरणम श्रीमती जी ----[व्यंग्य संग्रह}

2 - अभी सम्भावना है ...[गीत ग़ज़ल संग्रह]

3 - सुदामा की खाट .....[व्यंग्य संग्रह] 

मुझे इस बात का गर्व है कि इस मंच के सभी मित्र  इन तमाम गीतों और ग़ज़लों के आदि-श्रोता रहे हैं और सबसे पहले आप लोगो ने ही इसे पढ़ा ,सुना और आशीर्वाद दिया है


मिलने और प्रकाशक का पता  ---[मूल्य 240/-]

   अयन प्रकाशन
1/20 महरौली ,नई दिल्ली- 110 030

दूरभाष 2664 5812/ 9818988613
------------------

पुस्तक के शीर्षक के बारे में कुछ ज़्यादा तो नहीं कह सकता ,बस इतना समझ लें

मन के अन्दर एक अगन है ,वो ही गाती है
मैं नहीं गाता हूँ......

इस पुस्तक की भूमिका आदरणीय गीतकार और मित्र श्री राकेश खण्डेलवाल जी ने लिखी है 
आप लोगों की सुविधा के लिए यहाँ लगा रहा हूँ ...
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कुछ बातें


कभी हिमान्त के बाद की पहली गुनगुनाती हुई सुबह में किसी उद्यान में चहलकदमी करते हुए पहली पहली किरणों को ओस की बून्दों से प्रतिबिम्बित होकर कलियों की गंध में डूबे इन्द्रधनुष देखा है आपने ? कभी पांव फ़ैलाये हुये बैठे हवा के झोंके से तितलियों के परों की सरगोशी सुनी है आपने ?तट पर किसी पेड़ की झुकी हुई पत्तियों की परछाईं से महरों की आंखमिचौली का आनन्द लिया है आपने ??

संभव है आपकी व्यस्त ज़िन्दगी में आपको समय न मिल सका हो इन सब बातों के सुनने और अनुभूत कर पाने के लिये लेकिन यह सभी बातें सहज रूप से आपको मिल जाती हैं आनन्द पाठक के गीतों में । और सबसे अहम बात तो ये है कि सब अनुभूतियाँ उनकी रचनाओं में ऐसे उतरती हैं मानो उनके अधरों से फ़िसलते हुये सुरों के सांचे में भावानायें पिघल कर शब्द बन गई हों और आप ही आप आकर बैठ गई हों.

आनन्द पाठक की प्रस्तुत पुस्तक  -"मैं नहीं गाता हूँ...." में  संकलित जो रचनायें हैं वे न केवल उनकी सूक्ष्मदर्शिता की परिचायक हैं अपितु आम ज़िन्दगी के निरन्तर उठते प्रश्नों का मूल्यांकन करने हुये समाधान की कोशिश करती हैं. वे अपने आप को समय के रचनाकार से विलग नहीं करते:-

शब्द मेरे भी चन्दन हैं रोली बने
भाव पूजा की थाली लिये आ गया
तुमको स्वीकार हो ना अलग बात है
दिल में आया ,जो भाया, वही गा गया

और बिना किसी गुट में सम्मिलित हुये सबसे अलग  अपनी आप कहने की इस प्रक्रिया में आनन्द जी पूरी तरह सफ़ल रहे हैं ।रोज की ज़िन्दगी के ऊहापोह और असमंजस की स्थितियों को वो सहज वार्तालाप में बखान करते हैं—

आजीवन मन में द्वन्द रहा मैं सोच रहा किस राह चलूँ
हर मठाधीश कहता रहता मैं उसके मठ के द्वार चलूँ
मुल्ला जी दावत देते हं, पंडित जी उधर बुलाते हैं
मन कहता रहता है मेरा, मैं प्रेम नगर की राह चलूँ

और उनके मन का कवि सहसा ही चल पड़ता है सारी राहों को छोड़ ,एक शाश्वत प्रीति के पथ पर और शब्द बुनने लगते है वह संगीत जो केवल शिराओं में गूँजता है. मन सपनों से प्रश्न करने लगता है और उन्ही में उत्तर ढूँढ़ते हुये पूछता है

तुमने ज्योति जलाई होगी , यार मेरी भी आई होगी ?

और प्रश्न बुनते हुये यह अपने आप को सब से अलग मानते हुये भी सबसे अलग होने को स्वीकृति नहीं देता
ये कहानी नई तो नहीं है मगर
सबको अपनी कहानी नई सी लगे
बस खुदा से यही हूँ दुआ मांगता
प्रीति अपनी पुरानी कभी न लगे

आनन्द जी के गीत जहाँ  अपना विवेचन और विश्लेषण ख़ुद करते हैं वहीं एक सन्देश भी परोक्ष रूप से देते जाते हैं-

मन के अन्दर ज्योति छुपी है क्यों न जगाता उसको बन्दे

और

जितना सीधी सोची थी पर उतनी सीधी नहीं डगरिया
आजीवन भरने की कोशिश फिर भी रीती रही गगरिया

आनन्द जी के गीतों में जहाँ अपने आपको  अपने समाज के आईने में देखने की कोशिश है वहीं अनुभूति की गहराईयों का अथाहपन भी. उनकी इस अनवरत गीत यात्रा में इस पड़ाव पर वे सहज होकर कहते हैं

जीवन की अधलिखी किताबों के पन्नों पर
किसने लिखे हैं पीड़ा के ये सर्ग न पूछो.


आनन्द जी की विशेषता यही है कि उनकी कलम किसी एक विधा में बँध कर नहीं रहती. जब ग़ज़ल कहते हैं तो यही आनन्द फिर ’आनन’ [तख़्ल्लुस] हो जाता है। सुबह का सूर्य चढ़ती हुई धूप के साथ जहाँ उनके मन के कवि को बाहर लेकर आता है वहीं ढलती हुई शाम का सुनहरा सुरमईपन उन्के शायर को नींद से उठा देता है और वे कहते हैं

हौसले   परवाज़  के लेकर  परिन्दे   आ  गए
उड़ने से पहले ही लेकिन पर कतर  जातें हैं क्यों?

लेकिन व्यवस्था की इस शिकायत के वावज़ूद शायर हार नहीं मानता और कहता है

आँधियों से न कोई गिला कीजिए
लौ दिए की बढ़ाते रहा कीजिए

सीधे साधे शब्दों में हौसला बढ़ाने वाली बात अपने निश्चय पर अडिग रहने का सन्देश और पथ की दुश्वारियों ने निरन्तर जूझने रहने का संकल्प देती हुई यह पंक्तियाँ आनन्द पाठक  ’आनन’ की सुलझी हुई सोच का प्रमाण देती हैं हर स्थिति में गंभीर बात को व्यंग्य के माध्यम से सटीक कहने की उनकी विशिष्ट शैली अपने आप में अद्वितीय है. स्वतंत्रता के ६७ वर्षों के बाद के भारतीय परिवेश की सामाजिक और राजनीति परिस्थितियों से पीड़ित आम आदमी के पीड़ा को सरल शब्दों में कहते हैं

जो ख्वाब हमने देखा वो ख्वाब यह नहीं है
गो धूप तो हुई है पर ताब  वो नहीं है

और अपनी शिकायतों के एवज में मिलते हुये दिलासे और अपनी  आस्थाओं  पर अडिग रहते हुए भरोसे की बातें दुहराई जाने पर उनका शायर बरबस कह उठता है

तुमको खुदा कहा है किसने? पता नहीं है
दिल ने भले कहा हो हमने कहा नहीं है.

आनन्दजी की कलम से निकले हुये गीत, गज़ल लेख और व्यंग्य अपनी आप ही एक कसौटी बन जाते हैं जिस पर समकालीन रचनाकारों को अपनी रचनाओं की परख करनी होती है. 

मेरी आनन्दजी से यही अपेक्षा है कि अपनी कलम से निरन्तर प्रवाहित होने वाली रचनाओं को निरन्तर साझा करते रहें और बेबाक़ कहते रहें

सच सुन सकोगे तुम में अभी वो सिफ़त नहीं
कैसे सियाह रात को मैं चाँदनी कहूँ  ?

शुभकामनायें
राकेश खंडेलवाल
१४२०५ पंच स्ट्रीेट
सिल्वर स्प्रिंग, मैरीलेंड ( यू.एस.ए )
+१-३०१-९२९-०५०८
----------------
पुस्तक प्राप्ति का पता ---मूल्य 150/-
अयन प्रकाशन
1/20 महरौली ,नई दिल्ली ,110 030
दूरभाष  011-2664 5812
मोबाईल  098189 88613


-आनन्द पाठक-
09413395592

गुरुवार, 17 जुलाई 2014

चन्द माहिया : क़िस्त 04

:01:
मत काटो शाख़-ए-शजर
लौटेंगे थक कर
इक शाम परिन्दे घर

:02:

मैं मस्त कलन्दर हूँ
बाहर से क़तरा
भीतर से समन्दर हूँ

:03:

ये किसकी राहगुज़र ?
झुक जाता है सर
सजदे में यहाँ  आकर

:04:

सौ ख़्वाब ख़यालों में
जब तक है पर्दा
उलझा हूँ सवालों  में 

:05:

दुनिया ने ठुकराया 
और कहाँ जाता
मयखाने चला आया


-आनन्द.पाठक-
[सं 21-10-20]

शुक्रवार, 4 जुलाई 2014

चन्द माहिया : क़िस्त 03


:1;

ख़ुद से न गिला होता

यूँ न भटकते हम
तू काश! मिला होता

:2:


ऐसे न बनो बरहम

चुप हो पहलू में !
कैसी ये सजा जानम ?

:3:

बरगद बूढ़ा ही सही
घर के आँगन में
इक छाँव बनी तो रही

:4:

मिलने में मुहुरत क्या
जब चाहे आना
साइत की ज़रूरत क्या

:5:


रिश्तों को निभा देना

बर्फ़ जमी हो तो
कुछ धूप दिखा देना



[सं 21-10-20]

शुक्रवार, 20 जून 2014

चन्द माहिया : क़िस्त 02

:1:

किस बात पे हो रूठे ,
किस ने कहा तुम से
सब रिश्ते हैं झूठे ?

:2:

जाना था,नहीं आते
आ ही गये हो तो
कुछ देर ठहर जाते

:3:

जब तुमने नहीं माना
सच को सच मेरा
दुनिया ने कब जाना

:4:

आँखों के अन्दर है
तब तक है आँसू
निकले तो समन्दर है

:5: 

आँसू में छुपा है ग़म
कहने को क़तरा
दरिया से नहीं है कम

-आनन्द.पाठक

[सं 21-10-20]

शुक्रवार, 13 जून 2014

चन्द माहिया : क़िस्त 01


 : 1 : 

ये हुस्न का जादू है
सर तो सजदे में
पर दिल बेक़ाबू  है


    :2:

आँखों में उतरना है
टोक दिया दिल ने
कुछ और सँवरना है
  
     :3:

हम राह निहारेंगे
आओ न आओ तुम
हम फिर भी पुकारेंगे

     :4:

ख़्वाबों में बुला कर तुम
छुप जाती हो क्यों
यूँ प्यास बढ़ा कर तुम ?

     :5:


इक देश हमें जाना
कैसा होगा,वो !
जो देश है अनजाना


-आनन्द.पाठक-

सं 21-10-20

इन्ही माहियों को मेरी आवाज़ में सुने

सोमवार, 9 जून 2014

गीत 54 : तुम चाहे जितने पहरेदार....



तुम चाहे जितने पहरेदार बिठा दो
दो नयन मिले तो भाव एक रहते हैं

दो दिल ने कब माना है जग का बन्धन
नव सपनों का करता  रहता आलिंगन
जब युगल कल्पना मूर्त रूप  लेती हैं
मन ऐसे महका करते  ,जैसे चन्दन

जब उच्छवासों में युगल प्राण घुल जाते
तब मन के अन्तर्भाव  एक रहते हैं

यह प्रणय स्वयं में संस्कृति है ,इक दर्शन
यह चीज़ नहीं कि करते रहें  प्रदर्शन
अनुभूति और एहसास तले पलता है
यह ’तन’ का नहीं है.’मन’ का है आकर्षण

जब मर्यादा की ’लक्ष्मण रेखा’ आती
दो कदम ठिठक ,ठहराव एक रहते हैं

उड़ते बादल पर चित्र बनाते कल के
जब बिखर गये तो फिर क्यूँ आंसू ढुलके
जब भी यथार्थ की दुनिया से टकराए
जो रंग भरे थे ,उतर गए सब धुल के

नि:शब्द और बेबस आँखें कहती हैं
दो हृदय टूटते ,घाव एक रहते हैं

तुम चाहे जितने पहरेदार बिठा दो,दो नयन मिले तो भाव एक रहते हैं

-आनन्द.पाठक-

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014

ग़ज़ल 62 [07] : ऐसे समा गये हो...

ग़ज़ल 62[07]

221----2122  // 221---2122
मुज़ारे’ मुसम्मन अख़रब
मफ़ऊलु-- फ़ाइलातुन // मफ़ऊलु--फ़ाइलातुन
------------------------

ऐसे समा गये हो ,जानम मेरी नज़र में
तुम को ही ढूँढता हूँ ,हर शै में ,हर बशर में

इस दिल के आईने में इक अक्स जब से उभरा
फिर  बाद उसके कोई ठहरा नहीं नज़र में

पर्दा तो तेरे रुख पर देखा सभी ने लेकिन
देखा तुझे नुमायां ख़ुरशीद में ,क़मर में

जल्वा तेरा नुमायां हर सू जो मैने देखा
शम्स-ओ-क़मर में, गुल में, मर्जान में, गुहर में

वादे पे तेरे ज़ालिम हम ऐतबार कर के
भटका किए हैं तनहा कब से तेरे नगर में

आये गये हज़ारों इस रास्ते से ’आनन’
तुम ही नहीं हो तन्हा इस इश्क़ के सफ़र में

-आनन्द.पाठक


शब्दार्थ
शम्स-ओ-क़मर में =चाँद सूरज में
मर्जान में ,गुहर में= मूँगे में-मोती में

[सं 30-06-19]

रविवार, 20 अप्रैल 2014

ग़ज़ल 61[06] : आज फिर से मुहब्बत की बाते करो..

ग़ज़ल 61[06]

212--212--212--212
आज फिर से मुहब्बत की बातें करो
दिल है तन्हा  रफ़ाक़त  की बातें करो

ये  हवाई  उड़ाने  बहुत  हो  चुकीं
अब ज़मीनी हक़ीक़त की बातें करो

माह-ओ-अन्जुम की बातें मुबारक़ तुम्हें
मेरी रोटी सलामत की बातें करो

जो दिखाया वो  टी0वी0  पे जन्नत दिखी
दौर-ए-हाज़िर सदाक़त  की बातें करो

फेकना  यूँ ही  कीचड़ मुनासिब नहीं
कुछ मयारी सियासत की बातें करो

ये अक़ीदत नहीं ,चापलूसी है बस
गर हो ग़ैरत तो ग़ैरत की बातें करो

बाद मुद्दत के आए हो ’आनन’ के घर
पास बैठो ,न रुख़सत की बातें करो

-आनन्द.पाठक

शब्दार्थ
माह-ओ-अन्जुम की बातें = चाँद तारों की बातें
मुनासिब                          = उचित
मयारी            =स्तरीय standard
्दौर-ए-हाज़िर = वर्तमान समय
सदाक़त         =यथार्थ ,सच्चाई
अक़ीदत         = किसी के प्रति शुद्ध निष्ठा

[सं 30-06-19]

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

ग़ज़ल 60 [05] : वही मुद्दे ,वही वादे...

ग़ज़ल 60[05]

1222---1222---1222----1222

वही मुद्दे , वही वादे  ,वही चेहरे  पुराने हैं
सियासत की बिसातें हैं शराफ़त के बहाने हैं

चुनावी दौर में फ़िरक़ापरस्ती की हवाएं क्यूँ
निशाने पर ही क्यों रहते हमारे  आशियाने हैं

हमारे दौर का ये भी करिश्मा कम नहीं, यारो !
रँगे है हाथ ख़ूँ जिन के ,उन्हीं के हम दिवाने  हैं

तुम्हारे झूठ में कबतक ,कहाँ तक ढूँढते सच को
तुम्हारी सोच में अब साज़िशों के ताने-बाने हैं

जिधर नफ़रत सुलगती हैं ,उधर है ख़ौफ़ का मंज़र
जिधर उल्फ़त महकती है, उधर मौसम सुहाने हैं

चलो इस बात का भी फ़ैसला हो जाये तो अच्छा
तेरी नफ़रत है बरतर या मेरी उल्फ़त के गाने हैं

यही है वक़्त अब ’आनन’ उठा ले हाथ में परचम
अभी लोगो के होंठों पर सजे क़ौमी  तराने हैं

-आनन्द.पाठक-

[सं 30-06-19]

मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

ग़ज़ल 59 [04] : अब तो उठिए...


ग़ज़ल 59[04]

212--212--212

अब तो उठिए,बहुत सो लिए
खिड़कियां तो ज़रा  खोलिए

सोच में है हलाहल  भरा
फिर कहाँ तक शहद घोलिए

बात सुनिए मेरी या नहीं
प्यार से तो ज़रा बोलिए

लोग क्या क्या हैं कहने लगे
गाँठ मन की तो अब खोलिए

दोस्ती मे तिजारत नहीं
इक भरोसे को मत तोलिए

जो मिला प्यार से हम मिले
बाद उसके ही हम हो लिए

हाल ’आनन’ का क्या पूछना
दाग़ दिल पर थे कुछ,धो लिए

-आनन्द.पाठक

[सं 30-06-19]

बुधवार, 19 मार्च 2014

ग़ज़ल 58 [03] : इक धुँआ सा उठा दिया तुम ने....

ग़ज़ल 58[03]

बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून मुज़ाहिफ़ 
फ़ाइलातुन---मफ़ाइलुन---फ़अ’ लुन
2122----1212-----22-/112
-----------------------

इक धुँआ सा उठा दिया तुम ने
झूठ को सच बता दिया तुम ने

लकड़िय़ाँ अब भी गीली गीली हैं 
वाह ! शोला बना दिया तुम ने 

तुम भी शीशे के घर में रहते हो
फिर भी पत्थर चला दिया तुम ने

आइनों से तुम्हारी यारी थी
उनको पत्थर दिखा दिया तुम ने

खिड़कियाँ अब नहीं खुला करती
जब मुखौटा हटा दिया तुम ने

रहबरी की उमीद थी तुम से
पर भरोसा मिटा दिया तुम ने

तुम पे कैसे यकीं करे ’आनन’
रंग अपना दिखा दिया तुम   ने

-आनन्द.पाठक

[सं 30-06-19]

शनिवार, 15 मार्च 2014

गीत 53 : छेड़ गईं फागुनी हवाएँ........

आ0 मित्रो !

आप सभी को होली की हार्दिक शुभकामनायें........

होली गीत 

छेड़ गईं फागुनी हवाएँ
रंग चलो प्यार का लगाएँ

आई है कान्हा की टोली
राधा संग खेलन को होरी
" मोड़ ना कलाई  कन्हैया
काहे को करता बरजोरी "
ध्यान रहे होली में इतना मर्यादाएँ न टूट जाएँ
रंग चलो प्यार का लगाएँ...............

देख रही दुनिया है सारी
कुछ तो शर्म कर अरे मुरारी
लाख पड़े चाहे तू पईंयाँ
मैं न बनूँ रे कभी तुम्हारी
लोग कभी नाम मेरा लेंगे ,नाम तेरा साथ में लगाएँ
रंग चलो प्यार का लगाएँ............

मन की जो गाँठे ना खोली
काहे की, कैसी फिर होली
दिल से जो दिल ना मिल पाया
फीकी है स्वागत की बोली
रूठ गया अपना जो कोई ,आज चलो मिल के सब मनायें
रंग चलो प्यार का लगाएँ.........

आया है होली का  मौसम
तुम भी जो आ जाते,प्रियतम !
भर लेती खुशियों से आँचल
सपनों को मिल जात हमदम
रंग प्रीत का प्रिये लगा दो, उम्र भर जिसे छुड़ा न पाएँ
रंग चलो प्यार का लगाएँ.........................

-आनन्द.पाठक


शनिवार, 25 जनवरी 2014

ग़ज़ल 57 [52] : राह अपनी वो चलता गया....


ग़ज़ल 57[52]

मंच के सभी सदस्यों को 
 गणतन्त्र दिवस की शुभकामनायें और नई उम्मीदों से नए दिवस का स्वागत
छोटी बहर में -एक ग़ज़ल पेश कर रहा हूं
’मतला’ से इशारा साफ़ हो जायेगा ,बाक़ी आप सब स्वयं समझ जायेंगे

फ़ाइलुन---फ़ाइलुन---फ़ाइलुन
212---212---212


राह अपनी वो चलता रहा
’आप’ से ’हाथ’ जुड़ता रहा

मुठ्ठियाँ इन्क़लाबी रहीं
पाँव लेकिन फिसलता रहा

एक सैलाब आया तो था
धीरे धीरे उतरता रहा

जादूगर तो नहीं ,वो मगर
जाल सपनों का बुनता रहा

एक चेहरा नया सा लगा
रंग वो भी बदलता रहा

एक सूरज निकलने को था
उस से पहले ही ढलता रहा

जिस से ’आनन’ को उम्मीद थी
वो भरोसे को छलता रहा ।

-आनन्द.पाठक

[सं 300918]