मंगलवार, 31 मार्च 2015

एक ग़ज़ल 64 : चेहरे पे था निक़ाब---

[एक ग़ज़ल -आप [AAP] की नज़र -- बात  ’आप ’ की नहीं --बात है ज़माने की]
221--2121--1221--212

चेहरे पे था  निक़ाब ,हटाने का शुक्रिया
"कितने कमीन लोग"-बताने का शुक्रिया

अच्छा हुआ कि आप ने देखा न आईना
इलज़ाम  ऊँगलियों पे लगाने का शुक्रिया

घड़ियाल शर्मसार, तमाशा ये देख कर
मासूमियत से आँसू  बहाने का शुक्रिया

हर बात पे कहना कि तुम्ही दूध के धुले
"बाक़ी सभी हैं चोर’ जताने का शुक्रिया

फ़ैला के ’रायता’ कहें थाली भी साफ़ है
जादू ये बाकमाल दिखाने का शुक्रिया

कीचड़ उछालने मे न सानी है ’आप’ का
हर बात में ही टाँग अड़ाने का शुक्रिया

’आनन’ करे यक़ीन,करे भी तो किस तरह
’आदर्श’ का तमाशा बनाने का शुक्रिया

-आनन्द पाठक


[सं 30-06-19]

कोई टिप्पणी नहीं: