रविवार, 25 दिसंबर 2016

एक कविता 7[18] : सूरज निकल रहा है,,,,

एक कविता 7 [18]:  सूरज निकल रहा है.......

सूरज निकल रहा है
मेरा देश,सुना है
आगे बढ़ रहा है ,
सूरज निकल रहा है

रिंग टोन से टी0वी0 तक
घिसे पिटे से सुबह शाम तक
वही पुराने बजते गाने
सूरज निकल रहा है

लेकिन सूरज तो बबूल पर
टँगा हुआ है
भ्रष्ट धुन्ध से घिरा हुआ है
कुहरों की साजिश से
घिरी हुई प्राची की किरणें
कलकत्ता से दिल्ली तक
धूप हमारी जाड़े वाली
कोई निगल रहा है
सूरज निकल रहा है

एक सतत संघर्ष चल रहा
आज नहीं तो कल सँवरेगा
सच का पथ
नहीं रोकने से रुकता है
सूरज का रथ
’सत्यमेव जयते’ है तो
सत्यमेव जयते-ही होगा
काला धन पिघल रहा है

-आनन्द.पाठक-

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2016

एक ग़ज़ल 84[29] : जो जागे हैं.....


1222------1222------1222----1222
मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन
बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम
-----------------------------

जो जागे हैं मगर उठते नहीं  उनको जगाना क्या
खुदी को ख़ुद जगाना है किसी के पास जाना क्या

निज़ाम -ए- दौर-ए-हाज़िर को  बदलने जो चले थे तुम
बिके कुर्सी की खातिर तुम तो ,फिर झ्ण्डा उठाना क्या

ज़माने को ख़बर है सब  तुम्हारी डींग-शेखी  की
दिखे मासूम से चेहरे ,असल चेहरा छुपाना क्या

न चेहरे पे शिकन उसके ,न आँखों में नदामत है
न  लानत ही समझता है तो फिर दरपन दिखाना क्या

तुम्हारी बन्द मुठ्ठी हम समझ बैठे थे लाखों  की
खुली तो खाक थी फिर खाक कोअब आजमाना क्या

वही चेहरे ,वही मुद्दे ,वही फ़ित्ना-परस्ती है
सभी दल एक जैसे  है ,नया दल क्या,पुराना क्या

इबारत है लिखी दीवार पर गर पढ़ सको ’आनन’
समझ जाओ इशारा क्या ,नताइज को बताना क्या 

शब्दार्थ
         निज़ाम-ए-दौर-ए-हाज़िर = वर्तमान काल की शासन व्यवस्था
             नदामत   = पश्चाताप/पछतावा
लानत = धिक्कार
फ़ित्ना परस्ती = दंगा/फ़साद को प्रश्रय देना
नताइज  = नतीजे/ परिणाम

-आनन्द.पाठक-
[सं 30-06-19]

बुधवार, 12 अक्तूबर 2016

एक ग़ज़ल 83[30] : नहीं उतरेगा अब कोई......

1222---1222----1222----122
मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन---मफ़ईलुन--फ़ऊलुन
बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन महज़ूफ़
--------------------------------------------------

नहीं उतरेगा अब कोई फ़रिश्ता आसमाँ से
उसे डर लग रहा होगा यहाँ अहल-ए-ज़हाँ से

न कोह-ए-तूर पे उतरेगी कोई रोशनी अब
हमी को करनी होगी रोशनी सोज़-ए-निहाँ से

ज़माना लद गया जब आदमी में आदमी था
अयाँ होने लगे हैं लोग अब आतिश-ज़ुबाँ से

अभी निकला नहीं है क़ाफ़िला बस्ती से आगे
गिला करने लगे हैं लोग  मीर-ए-कारवां से

हमारा राहबर खुद ही यहाँ गुमराह हुआ है
खुदा जाने कहाँ को ले के जायेगा  यहाँ  से

इधर आना तो पढ़ लेना मेरी रूदाद-ए-हस्ती
जिसे मैं कह न पाया था कभी अपनी ज़ुबाँ से

कभी ’आनन’ को भी अपनी दुआ में याद रखना
भला था या बुरा था ,हो रहा रुखसत जहाँ से

शब्दार्थ
अहल-ए-ज़हाँ से   = इस दुनिया के लोगों से
सोज़-ए-निहाँ  से = [दिल के] अन्दर छुपी आग से
आतिश-ज़बां से =आग लगाती बातों से[अग्नि वाणी]
मीर-ए-कारवाँ से = कारवाँ का नेतॄत्व करने वाले से
रूदाद-ए-हस्ती = जीवन-गाथा

-आनन्द.पाठक-
[सं 28-05-18]

बुधवार, 21 सितंबर 2016

एक ग़ज़ल 82[27] : निक़ाब-ए-रुख़ में ...

1222---1222----1222-----1222
मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन--मफ़ाईलुन
बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम
----------------------------


निक़ाब-ए-रुख में शरमाना, निगाहों का झुकाना क्या
ख़बर हो जाती है दिल को, दबे पाँवों  से आना क्या

अगर हो रूह में ख़ुशबू  तो ख़ुद ही फैल जाएगी
ज़माने से छुपाना क्या  ,तह-ए-दिल में  दबाना  क्या

अगर दिल से नहीं मिलता है दिल तो बात क्या होगी
दिखाने के लिए फिर हाथ का मिलना मिलाना क्या

क़यामत आती है दर पर ,झिझक कर लौट जाती है
तुम्हारा इस तरह चुपके से आना और जाना क्या

ख़ुदा कुछ तो अता कर दे मेरे मासूम दिलबर को
नहीं वो जानता होती वफ़ा क्या और निभाना क्या

तुम्हारी शोखियाँ क़ातिल अदाएं और भी क़ातिल
निगाह-ए-नाज़ की खंज़र से अब ख़ुद को बचाना क्या

क़सम खा कर भी न आना ,नहीं शिकवा गिला कोई
न आना था तो न आते ,ये झूटी कसमें खाना क्या

 कहीं का भी नहीं छोड़ा , सनम तेरी मुहब्बत ने
हुआ हूँ जाँ-ब-लब ’आनन’, तेरा आना न आना क्या

शब्दार्थ
ज़ाँ-ब-लब = मरणासन्न


-आनन्द.पाठक-
[सं 30-06-19]


शनिवार, 17 सितंबर 2016

चन्द माहिया :क़िस्त 34

न्द माहिया : क़िस्त 34

:1:
पूछा तो कभी होता
दिल से भी मेरे
यह, किस के लिए रोता ?

:2:
सोने भी नहीं देतीं
यादें अब तेरी
रोने भी नहीं देतीं
:3:
क्यों मन से हारे हो ?
जीते जी मर कर
अब किस के सहारे हो?
:4:
ग़ैरों से सुना करते
सुनते जो मुझ से
क्यूँ तुम से गिला करते

:5:
वो शाम सुहानी है शामिल है जिसमे कुछ याद पुरानी है

-आनन्द पाठक

[सं 13-06-18]

शुक्रवार, 10 जून 2016

एक ग़ज़ल 81[28] : सपनों में लोकपाल था----

एक ग़ैर रवायती ग़ज़ल
 मुज़ारे’ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु---फ़ाइलातु----मफ़ाईलु----फ़ाअ’लुन/फ़ाइलान
221---------2121------1221-----212      /2121


 सपनों में ’लोकपाल’ था  मुठ्ठी में इन्क़लाब
 ’दिल्ली’ में जा के ’आप’ को क्या हो गया जनाब !

 वादे किए थे आप ने ,जुमलों का क्या हुआ
 अपने का छोड़ और का लेने लगे हिसाब  ?

 कुछ आँकड़ों में ’आप’ को जन्नत दिखाई दी
 गुफ़्तार ’आप’ की हुआ करती  है लाजवाब

 लौटे हैं हाथ में लिए बुझते हुए  चराग
 निकले थे घर से लोग जो लाने को माहताब

 चढ़ती नहीं है काठ की हाँडी ये बार बार
 कीचड़ उछालने से ही  होंगे न कामयाब

 जो बात इब्तिदा में थी अब वो नहीं रही
 अब वो नहीं है धार  ,न तेवर ,न आब-ओ-ताब

 गुमराह हो गया है  मेरा मीर-ए-कारवां
 ’आनन’ दिखा रहा है वो फिर भी हसीन ख़्वाब

 -आनन्द.पाठक-
[सं 30-06-19]

शब्दार्थ
आप [A.A.P]   =Noun or pronoun जो आप समझ लें
गुफ़्तार   = बातचीत
मीर-ए-कारवाँ  = कारवां का नेतृत्व करने वाला 

शनिवार, 28 मई 2016

एक ग़ज़ल 80[26] : अगर सोच में तेरी पाकीजगी है....

मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
फ़ऊलुन--फ़ऊलुन--ऊलुन--फ़ऊलुन—

122------122------122-----122

अगर सोच में तेरी पाकीज़गी है
इबादत -सी तेरी  मुहब्बत लगी है

मेरी बुतपरस्ती का जो नाम दे दो
मैं क़ाफ़िर नहीं ,वो मेरी बन्दगी है

कई बार गुज़रा हूँ तेरी गली से 
कि हर बार बढ़ती गई तिश्नगी है

अभी नीमगुफ़्ता है रूदाद मेरी
अभी से मुझे नींद आने लगी है

उतर आओ दिल में तो रोशन हो दुनिया
तुम्हारी बिना पर ही ये ज़िन्दगी है

ये कुनबा,ये फ़िर्क़ा हमीं ने बनाया
कहीं रोशनी तो कहीं तीरगी  है

मैं राह-ए-तलब का मुसाफ़िर हूँ ’आनन’
मेरी इन्तिहा मेरी दीवानगी  है

-आनन्द पाठक-

[सं 30-06-19]

शब्दार्थ
पाकीज़गी  = पवित्रता
बुत परस्ती        = मूर्ति पूजा ,सौन्दर्य की उपासना
तिशनगी = प्यास
नीम गुफ़्ता रूदाद-=आधी अधूरी कहानी/किस्से ,अधूरे काम
तुम्हारी बिना पर = तुम्हारी ही बुनियाद पर
तीरगी =अँधेरा
राह-ए-तलब का मुसाफ़िर= प्रेम मार्ग का पथिक

शनिवार, 21 मई 2016

चन्द माहिया : क़िस्त 32




:1:
जब तुम ने नहीं माना
टूटे रिश्तों को
फिर क्या ढोते जाना

:2:
इस दिल ने पुकारा है
ख़ामोशी तेरी, 
मुझ को न गवारा है

:3:
तुम तोड़ गए सपने
ऐसा भी होगा
सोचा था नहीं हमने

  :4:
जब तुमको छकाना है
आँख मिचौली में
तुम से छुप जाना था

5
हर रंग जो सच्चा है
प्रीत मिला दे तो
सब रंग से अच्छा है


-आनन्द पाठक-
[सं 13-06-18]


गुरुवार, 14 अप्रैल 2016

चन्द माहिया : क़िस्त 31

:1:

माना कि तमाशा है

कार-ए-जहाँ में सब
फिर भी इक आशा है

:2:

दरपन तो दरपन है
झूठ नहीं बोले
जो बोल रहा मन है ?

:3:

छाई जो घटाएँ हैं
दिल है रिंदाना
बहकी सी हवाएँ  हैं

:4:

जितना देखा है फ़लक
 उतना ही उसकी 
आँखों में सच की झलक

:5:

 कैसा ये नशा ,किसका ?
किसने देखा है ?
एहसास है बस उसका


-आनन्द पाठक-
[सं 13-06-18]

बुधवार, 23 मार्च 2016

गीत 34 : होली पर एक भोजपुरी गीत...

होली पर सब मनई के अडवान्स में बधाई ......

होली पर एक ठे ’भोजपुरी’ गीत रऊआ लोग के सेवा में ....
नीक लागी तऽ  ठीक , ना नीक लागी तऽ कवनो बात नाहीं....
ई गीत के पहिले चार लाईन अऊरी सुन लेईं

माना कि गीत ई पुरान बा
      हर घर कऽ इहे बयान बा
होली कऽ मस्ती बयार मे-
मत पूछऽ बुढ़वो जवान बा--- कबीरा स र र र र ऽ

अब हमहूँ 60-के ऊपरे चलत बानी..

भोजपुरी गीत : होली पर....

कईसे मनाईब होली ? हो राजा !
कईसे मनाईब होली..ऽऽऽऽऽऽ

आवे केऽ कह गईला अजहूँ नऽ अईला
’एस्मेसवे’ भेजला ,नऽ पइसे पठऊला
पूछा न कईसे चलाइलऽ  खरचा
अपने तऽ जा के,परदेसे रम गईला 

कईसे सजाई रंगोली?  हो राजा  !
कईसे सजाई रंगोली,,ऽऽऽऽऽ

मईया के कम से कम लुग्गा तऽ चाही
’नन्हका’ छरिआईल बाऽ ,जूता तऽ चाही
मँहगाई अस मरलस कि आँटा बा गीला
’मुनिया’ कऽ कईसे अब लहँगा सिआई

कईसे सिआईं हम चोली ? हो राजा !
कईसे सिआईं हम चोली ,,ऽऽऽऽऽऽऽ

’रमनथवा’ मारे लाऽ रह रह के बोली
’कलुआ’ मुँहझँऊसा करे लाऽ ठिठोली
पूछेलीं गुईयाँ ,सब सखियाँ ,सहेली
अईहें नऽ ’जीजा’ काऽ अब किओ होली?

खा लेबों ज़हरे कऽ गोली हो राजा
खा लेबों ज़हरे कऽ  गोली..ऽऽऽऽऽ

अरे! कईसे मनाईब होली हो राजा ,कईसे मनाईब होली...

-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ [असहज पाठकों के लिए]
एस्मेसवे’ ==S M S
लुग्गा   = साड़ी
छरिआईल बा = जिद कर रहा है
मुँहझँऊसा = आप सब जानते होंगे [अर्थ अपनी श्रीमती जी से पूछ लीजियेगा]

सोमवार, 21 मार्च 2016

चन्द माहिया : क़िस्त.33


चन्द माहिया : ..33

:1:

भर दो इस झोली में
प्यार भरे सपने
इस बार की होली में

:2:

मारो ना पिचकारी
कोरी है अब तक
तन की मेरी सारी

:3:
रंगोली आँगन की
देख रही राहें
साजन के आवन की

:4:
मन ऐसा रँगा ,माहिया !
जितना भी धोऊँ
उतना ही चढ़ा ,माहिया !

:5:
मुश्किल की पहल आए
सब्र न खो देना
इक राह निकल आए


-आनन्द.पाठक-
[सं 13-06-18]

गुरुवार, 10 मार्च 2016

चन्द माहिया: क़िस्त 30

चन्द माहिया : क़िस्त 30

:1:
तुम से गर  जुड़ना है
मतलब है इस का
बस ख़ुद से बिछुड़ना है

:2:
आने को आ जाऊँ
रोक रहा कोई
कैसे मैं ठुकराऊँ ?

:3:
इक लफ़्ज़ मुहब्बत है
जिसके लिए मेरी
दुनिया से अदावत है

:4;
दीदार हुआ जब से
जो भी रहा बाक़ी
ईमान गया तब से

:5:
जब तू ही मेरे दिल में
ढूँढ रहा है मैं
फिर किस को महफ़िल में ?


आनन्द.पाठक
[सं 13-06-18]


शनिवार, 5 मार्च 2016

एक ग़ज़ल 79[25] : यूँ तो तेरी गली से....

मुज़ारे’ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ मक्फ़ूफ़ मुख़्न्निक़ सालिम अल आखिर
मफ़ऊलु---फ़ाअ’लातुन  // मफ़ऊलु---फ़ाअ’लातुन 
221--------2122        //  221-------2122

  

यूँ तो तेरी गली से , मैं बार  बार गुज़रा
लेकिन हूँ जब भी गुज़रा ,मैं सोगवार गुज़रा

तुमको यकीं न होगा ,गर दाग़-ए-दिल दिखाऊँ
राहे-ए-तलब में कितना ,गर्द-ओ-ग़ुबार गुज़रा

आते नहीं हो अब तुम ,क्या हो गया है तुमको
क्या कह गया हूँ ऐसा ,जो नागवार  गुज़रा

दामन बचा बचा कर ,मेरे मकां से बच कर
रुख पर निक़ाब डाले ,मेरा निगार  गुज़रा

मैं चाहता हूँ  कितना तुझको ख़बर न होगी
राह-ए-वफ़ा से तेरा  सजदागुज़ार  गुज़रा

सारे गुनाह मेरे  हैं साथन साथ चलते
दैर-ओ-हरम के आगे ,मैं शर्मसार गुज़रा

रिश्तों की मैं तिज़ारत करता नहीं हूं,’आनन’
मेरी तरह से वो भी था गुनहगार गुज़रा

-आनन्द पाठक-

[सं 30-06-19]
राह-ए-तलब = प्रेम के मार्ग में

रविवार, 21 फ़रवरी 2016

एक ग़ज़ल 78[74]:इलाही कैसा मंज़र है....

1222------1222------1222-----1222

इलाही ! कैसा मंज़र है, हमें दिन रात छलता है
कहीं धरती रही प्यासी ,कहीं  बादल मचलता है

कभी जब रास्ते में आइना उसने कहीं  देखा
न जाने देख कर क्यूँ रास्ता अपना  बदलता है

बुलन्दी आसमां की नाप कर भी आ गए ताईर
इधर तू बैठ कर खाली ख़याली  चाल चलता है

हथेली की लकीरों पर तुम्हें इतना भरोसा क्यों ?
तुम्हारे बाजुओं से भी तो इक रस्ता निकलता है

हमारे सामने मयख़ाना भी, बुतख़ाना भी ,ज़ाहिद !
चलो मयख़ाना चलते हैं ,यहाँ क्यूँ हाथ मलता है

जिसे तुम ढूँढते फिरते यहाँ तक आ गये ,जानम
तुम्हारे दिल के अन्दर था ,तुम्हारे साथ चलता है

मुझे हर शख़्स आता है नज़र अपनी तरह ’आनन’
मुहब्बत का दिया जब दिल में सुब्ह-ओ-शाम जलता है

-आनन्द.पाठक-

[सं 30-06-19]

शब्दार्थ
मंज़र  = दृश्य
ताईर  = परिन्दा/पक्षी/बाज पक्षी जो अपनी
ऊँची और लम्बी उड़ान के लिए जाना जाता है

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

चन्द माहिया : क़िस्त 29



:1:
दीवार उठाते हो
 तनहा जब होते
फिर क्यूँ घबराते हो 

:2:

इतना भी सताना क्या
दम ही निकल जाए
फिर बाद में आना क्या

:3;

ये हुस्न की रानाई
तड़पेगी यूं ही
गर हो न पज़ीराई

:4:

दुनिया के सारे ग़म
इश्क़ में ढल जाए
बदलेगा तब मौसम

;5;

क्या हाल बताना है
तेरे फ़साने में 
मेरा भी फ़साना है 


-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ

रानाई = सौन्दर्य
पज़ीराई= प्रशंसा
[सं 13-06-18]

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

एक ग़ज़ल 77[23] : कहाँ तक रोकते दिल को...

एक ग़ैर रवायती ग़म-ए-दौरां की ग़ज़ल......
1222---1222----1222---1222

कहाँ तक रोकता दिल को कि जब होता दिवाना है
ज़माने  से    बगावत   है ,  नया आलम  बसाना है

मशालें   इल्म की  लेकर  चले थे  रोशनी करने
जो अबतक ख़्वाब में खोए ,उन्हे तुम को जगाना है 

यूँ जिनके शह पे कल तुमने एलान-ए-जंग तो कर दी 
कि उनका एक ही मक़सद ,तुम्हें  मोहरा बनाना है

धुँआ  आँगन से उठता है तो अपना दम भी घुटता है
तुम्हारा शौक़ है या साज़िशों  का ताना-बाना  है

लगा कर आग नफ़रत की सियासी रोटियाँ  सेंको
अरे ! क्या हो गया तुमको जो अपना घर जलाना है

-" शहीदों की चिताऒं पर लगेंगे  हर बरस मेले "-
यहाँ की धूल पावन है , तिलक माथे लगाना है

तुम्हारे बाज़ुओं में  दम है कितना ,जानता ’ आनन’
हमारे बाजुओं  का ज़ोर अब तुमको  दिखाना है 

-आनन्द.पाठक-

[सं 30-06-19]

रविवार, 31 जनवरी 2016

चन्द माहिए: क़िस्त 28

चन्द माहिए : क़िस्त 28


:1:
हर बुत में नज़र आया
 वो ही दिखा सब में
जब दिल में उतर आया

:2:

जाना है तेरे दर तक
ढूँढ रहा हूँ मैं
इक राह तेरे घर तक

:3:

पंछी ने कब माना
मन्दिर मस्जिद का
होता है अलग दाना

:4:

किस मोड़ पे आज खड़े
क़त्ल हुआ इन्सां
मज़हब मज़ह्ब से लड़े

:5;

इक दो अंगारों से
 क्या समझोगे ग़म
दरिया का ,किनारों से

-आनन्द.पाठक-

[सं 01-10-20 ]


बुधवार, 27 जनवरी 2016

एक ग़ज़ल 76[21] : उन्हें हाल अपना सुनाते भी क्या..

मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम महज़ूफ़
फ़ऊलुन--फ़ऊलुन---फ़ऊलुन--फ़’अल
122-------122----------122-------12
-----

उन्हें हाल अपना सुनाते भी क्या
भला सुन के वो मान जाते भी क्या

अँधेरे  उन्हें रास आने  लगे
चिराग़-ए-ख़ुदी वो जलाते भी क्या

अभी ख़ुद परस्ती में वो मुब्तिला
उसे हक़ शनासी बताते भी क्या

नए दौर की  है नई रोशनी
पुरानी हैं रस्में ,निभाते भी क्या

जहाँ भी गया मैं  गुनह साथ थे
नदामत जदा,पास जाते भी क्या

उन्हें ख़ुद सिताई से फ़ुरसत नहीं
वो सुनते भी क्या और सुनाते भी क्या

दम-ए-आख़िरी जब कि निकला था दम
पता था उन्हें, पर वो आते  भी क्या

जहाँ दिल से दिल की न गाँठें खुले
वहाँ हाथ ’आनन’ मिलाते भी क्या

-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ;-
ख़ुदपरस्ती =अपने आप को ही सब कुछ समझने का भाव
मुब्तिला = ग्रस्त ,जकड़ा हुआ
हक़शनासी =सत्य व यथार्थ को पहचानना
नदामत जदा = लज्जित /शर्मिन्दा
खुदसिताई =अपने मुँह से अपनी ही प्रशंसा करना


[सं 30-06-19]

रविवार, 24 जनवरी 2016

एक ग़ज़ल 75[20] : वो जो राह-ए-हक़ चला है उम्र भर....

फ़ाइलातुन---फ़ाइलातुन--फ़ाइलुन
2122----2122---212
रमल मुसद्दस महज़ूफ़
--------

वो जो राह-ए-हक़ चला है उम्र भर
साँस ले ले कर मरा है  उम्र भर

जुर्म इतना है ख़रा सच बोलता 
कठघरे में जो खड़ा है  उम्र भर

उम्र भर सब पर यकीं करता रहा
अपने लोगों  ने छला है उम्र भर

मुख्य धारा से अलग धारा है यह
खुद का खुद से सामना है उम्र भर

घाव दिल के जो दिखा पाता ,कभी
स्वयं से कितना  लड़ा  है उम्र भर

राग दरबारी नहीं है गा सका
इसलिए सूली चढ़ा  है उम्र भर

झू्ठ की महफ़िल सजी ’आनन’ जहाँ
सत्य ने पाई सज़ा  है उम्र भर

-आनन्द पाठक-
~

[सं 30-06-19]

मंगलवार, 12 जनवरी 2016

चन्द माहिया :क़िस्त 27



:1:
इठला कर चलता है
जैसा हो मौसम
ईमान बदलता है

:2:
एक आस अभी बाक़ी
तेरे आने तक
इक साँस अभी  बाक़ी

:3:
क्या रंग-ए-क़यामत है
लहरा कर चलना
 कुछ उसकी आदत है



:4:
गर्दिश में रहे जब हम
दूर खड़ी दुनिया
पर साथ खड़े थे ग़म

:5:
कब एक सा चलता है
सुख-दुख का मौसम
मौसम है, बदलता है

-आनन्द.पाठक-
[सं  13-06-18]

शनिवार, 2 जनवरी 2016

एक ग़ज़ल 74[19] : अगर आप...


122---122---122---122

अगर आप जीवन  में होते न दाखिल
कहाँ ज़िन्दगी थी ,किधर था मैं गाफ़िल

न वो आश्ना है  ,न हम जानते  हैं
मगर एक रिश्ता अज़ल से है हासिल

नुमाइश नहीं है ,अक़ीदत है दिल की
ये उलफ़त भी होती  इबादत  में शामिल

हज़ारों तरीक़ों से वो  आजमाता
खुदा जाने कितने हैं बाक़ी मराहिल

मसीहा न कोई ,न कोई मुदावा 
कहाँ ले के जाऊँ ये टूटा हुआ दिल

जो पूछा कि क्या हैं मुहब्बत  की रस्में?
दिया रख गया वो हवा के मुक़ाबिल

इसी फ़िक़्र में उम्र गुज़री है "आनन’
ये दरिया,ये कश्ती ,ये तूफ़ां ,वो साहिल

-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ
मराहिल  =पड़ाव /ठहराव [ ब0ब0 - मरहला]
आशना    =परिचित /जान-पहचान
अज़ल  से  = अनादि काल से
अक़ीदत  = दृढ़ विश्वास
मुदावा     =इलाज

[सं 30-06-19]

शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

चन्द माहिया :क़िस्त 26


चन्द माहिया : क़िस्त 26
 
 :1:
इतना तो कर साथी
आ जा चुपके से 
कर दिल में घर साथी


:2:

साँसो का बन्धन है
टूटेगा कैसे ?
रिश्ता जो पावन है

:3:

दिल और धड़कने दो
रुख पर है पर्दा
कुछ और सरकने दो

:4:

अपनी तोआदत है
हुस्न परस्ती में
दिल राह-ए-जियारत है

:5:

करता हूँ ख़ता फिर भी
लाख ख़फ़ा हो कर 
करता वो वफ़ा फिर भी

-आनन्द.पाठक-


[सं 13-06-18]