बुधवार, 27 जनवरी 2016

एक ग़ज़ल 76[21] : उन्हें हाल अपना सुनाते भी क्या..

मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम महज़ूफ़
फ़ऊलुन--फ़ऊलुन---फ़ऊलुन--फ़’अल
122-------122----------122-------12
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उन्हें हाल अपना सुनाते भी क्या
भला सुन के वो मान जाते भी क्या

अँधेरे  उन्हें रास आने  लगे
चिराग़-ए-ख़ुदी वो जलाते भी क्या

अभी ख़ुद परस्ती में वो मुब्तिला
उसे हक़ शनासी बताते भी क्या

नए दौर की  है नई रोशनी
पुरानी हैं रस्में ,निभाते भी क्या

जहाँ भी गया मैं  गुनह साथ थे
नदामत जदा,पास जाते भी क्या

उन्हें ख़ुद सिताई से फ़ुरसत नहीं
वो सुनते भी क्या और सुनाते भी क्या

दम-ए-आख़िरी जब कि निकला था दम
पता था उन्हें, पर वो आते  भी क्या

जहाँ दिल से दिल की न गाँठें खुले
वहाँ हाथ ’आनन’ मिलाते भी क्या

-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ;-
ख़ुदपरस्ती =अपने आप को ही सब कुछ समझने का भाव
मुब्तिला = ग्रस्त ,जकड़ा हुआ
हक़शनासी =सत्य व यथार्थ को पहचानना
नदामत जदा = लज्जित /शर्मिन्दा
खुदसिताई =अपने मुँह से अपनी ही प्रशंसा करना


[सं 30-06-19]

3 टिप्‍पणियां:

आनन्द पाठक ने कहा…

aap kaa Aabhaar shat-shat

anand.pathak

shashi purwar ने कहा…

वाह सुन्दर गजल हार्दिक बधाई

आनन्द पाठक ने कहा…


आ0 शशि जी
आप का बहुत बहुत धन्यवाद
सादर
-आनन्द.पाठक