शनिवार, 28 मई 2016

एक ग़ज़ल 80[26] : अगर सोच में तेरी पाकीजगी है....

मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
फ़ऊलुन--फ़ऊलुन--ऊलुन--फ़ऊलुन—

122------122------122-----122

अगर सोच में तेरी पाकीज़गी है
इबादत -सी तेरी  मुहब्बत लगी है

मेरी बुतपरस्ती का जो नाम दे दो
मैं क़ाफ़िर नहीं ,वो मेरी बन्दगी है

कई बार गुज़रा हूँ तेरी गली से 
कि हर बार बढ़ती गई तिश्नगी है

अभी नीमगुफ़्ता है रूदाद मेरी
अभी से मुझे नींद आने लगी है

उतर आओ दिल में तो रोशन हो दुनिया
तुम्हारी बिना पर ही ये ज़िन्दगी है

ये कुनबा,ये फ़िर्क़ा हमीं ने बनाया
कहीं रोशनी तो कहीं तीरगी  है

मैं राह-ए-तलब का मुसाफ़िर हूँ ’आनन’
मेरी इन्तिहा मेरी दीवानगी  है

-आनन्द पाठक-

[सं 30-06-19]

शब्दार्थ
पाकीज़गी  = पवित्रता
बुत परस्ती        = मूर्ति पूजा ,सौन्दर्य की उपासना
तिशनगी = प्यास
नीम गुफ़्ता रूदाद-=आधी अधूरी कहानी/किस्से ,अधूरे काम
तुम्हारी बिना पर = तुम्हारी ही बुनियाद पर
तीरगी =अँधेरा
राह-ए-तलब का मुसाफ़िर= प्रेम मार्ग का पथिक

शनिवार, 21 मई 2016

चन्द माहिया : क़िस्त 32




:1:
जब तुम ने नहीं माना
टूटे रिश्तों को
फिर क्या ढोते जाना

:2:
इस दिल ने पुकारा है
ख़ामोशी तेरी, 
मुझ को न गवारा है

:3:
तुम तोड़ गए सपने
ऐसा भी होगा
सोचा था नहीं हमने

  :4:
जब तुमको छकाना है
आँख मिचौली में
तुम से छुप जाना था

5
हर रंग जो सच्चा है
प्रीत मिला दे तो
सब रंग से अच्छा है


-आनन्द पाठक-
[सं 13-06-18]