बुधवार, 12 अक्तूबर 2016

एक ग़ज़ल 83[30] : नहीं उतरेगा अब कोई......

1222---1222----1222----122
मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन---मफ़ईलुन--फ़ऊलुन
बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन महज़ूफ़
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नहीं उतरेगा अब कोई फ़रिश्ता आसमाँ से
उसे डर लग रहा होगा यहाँ अहल-ए-ज़हाँ से

न कोह-ए-तूर पे उतरेगी कोई रोशनी अब
हमी को करनी होगी रोशनी सोज़-ए-निहाँ से

ज़माना लद गया जब आदमी में आदमी था
अयाँ होने लगे हैं लोग अब आतिश-ज़ुबाँ से

अभी निकला नहीं है क़ाफ़िला बस्ती से आगे
गिला करने लगे हैं लोग  मीर-ए-कारवां से

हमारा राहबर खुद ही यहाँ गुमराह हुआ है
खुदा जाने कहाँ को ले के जायेगा  यहाँ  से

इधर आना तो पढ़ लेना मेरी रूदाद-ए-हस्ती
जिसे मैं कह न पाया था कभी अपनी ज़ुबाँ से

कभी ’आनन’ को भी अपनी दुआ में याद रखना
भला था या बुरा था ,हो रहा रुखसत जहाँ से

शब्दार्थ
अहल-ए-ज़हाँ से   = इस दुनिया के लोगों से
सोज़-ए-निहाँ  से = [दिल के] अन्दर छुपी आग से
आतिश-ज़बां से =आग लगाती बातों से[अग्नि वाणी]
मीर-ए-कारवाँ से = कारवाँ का नेतॄत्व करने वाले से
रूदाद-ए-हस्ती = जीवन-गाथा

-आनन्द.पाठक-
[सं 28-05-18]

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