मंगलवार, 3 अक्तूबर 2017

ग़ज़ल 94 [40]: बहुत अब हो चुकी बातें---


1222--1222--1222---122
ग़ज़ल : बहुत अब हो चुकी बातें------

बहुत अब हो चुकी बातें तुम्हारी ,आस्माँ की
उतर आओ ज़मीं पर बात करनी है ज़हाँ की

मसाइल और भी है ,पर तुम्हें फ़ुरसत कहाँ है
कहाँ तक हम सुनाएँ  दास्ताँ  अश्क-ए-रवाँ की

मिलाते हाथ हो लेकिन नज़र होती कहीं पर
कि हर रिश्ते में रहते सोचते  सूद-ओ-जियाँ की

सभी है मुब्तिला हिर्स-ओ-हसद में, खुद गरज हैं
यहाँ पर कौन सुनता है  अमीर-ए-कारवां  की

वही शोले हैं नफ़रत के ,वही फ़ित्नागरी  है
किसे अब फ़िक़्र है अपने वतन हिन्दोस्तां की

हमें मालूम है पानी कहाँ पर मर रहा  है
बचाना है हमें बुनियाद  पहले इस मकाँ  की

तुम्हारे दौर का ’आनन’ कहो कैसा चलन है?
वही मारा गया जो  बात करता है ईमाँ  की

-आनन्द.पाठक--

शब्दार्थ
मसाइल =समस्यायें
अश्क-ए-रवाँ = बहते हुए आँसू
सूद-ओ-ज़ियाँ = हानि-लाभ/फ़ायदा-नुक़सान
मुब्तिला =लिप्त
हिर्स-ओ-हसद= लोभ लालच इर्ष्या द्वेष
पित्नागरी = दंगा फ़साद

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