शनिवार, 4 अगस्त 2018

ग़ज़ल 99[47] : ये आँधी ,ये तूफ़ाँ---


122--122--122--122
एक ग़ज़ल : ये आँधी ,ये तूफ़ाँ--

ये आँधी ,ये तूफ़ाँ ,मुख़ालिफ़ हवाएँ
भरोसा रखें, ख़ुद में हिम्मत जगायें

कहाँ तक चलेंगे लकीरों पे कब तक
अलग राह ख़ुद की चलो हम बनाएँ

बहुत दूर तक आ गए साथ चल कर
ये मुमकिन नहीं अब कि हम लौट जाएँ

अँधेरों को हम चीर कर आ रहे हैं
अँधेरों से ,साहब ! न हम को डराएँ

अगर आप को शौक़ है रहबरी का
ज़रा आईना भी कहीं देख आएँ

अभी  कारवाँ मीर ले कर है निकला
अभी से तो उस पर न उँगली उठाएँ

यहाँ आदमी की कमी तो नहीं है
चलो ’आदमीयत’ ज़रा ढूँढ  लाएँ

न मन्दिर, न मस्जिद, कलीसा न ’आनन’
नया पुल मुहब्बत का फिर से बनाएँ

-आनन्द.पाठक-

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