शनिवार, 8 सितंबर 2018

ग़ज़ल 101[49] : झूठ का जब धुआँ --


एक ग़ज़ल :
212---212---212---212
फ़ाइलुन---फ़ाइलुन---फ़ाइलुन---फ़ाइलुन
---------------------------

झूठ का  ये धुआँ जब घना हो गया
सच  यहाँ बोलना अब मना हो गया

आईने को ही फ़र्ज़ी बताने लगे
आइने से कभी सामना हो गया

रहबरी भी तिजारत हुई आजकल
जिसका मक़सद ही बस लूटना हो गया

जिसको देखा नहीं जिसको जाना नहीं
क्या कहें ,दिल उसी पे फ़ना हो गया

रफ़्ता रफ़्ता वो जब याद आने लगे
बेख़ुदी में ख़ुदी  भूलना हो गया

रंग चेहरे का ’आनन’ उड़ा किसलिए ?
ख़ुद का ख़ुद से कहीं सामना हो गया ?

-आनन्द.पाठक-

[सं0 25 -09-18]

2 टिप्‍पणियां:

Alaknanda Singh ने कहा…

बहुत खूबसूरती से आज के हालात बयां कर दिए आपने पाठक जी...कि ...रहबरी भी तिजारत हुई आजकल जिसका मक़सद ही बस लूटना हो गया

Sudha Devrani ने कहा…

जिसको देखा नहीं जिसको जाना नहीं
क्या कहें दिल,उसी पे फ़ना हो गया
वाहवाह....
बहुत सुन्दर.... लाजवाब....