सोमवार, 15 अप्रैल 2019

ग़ज़ल 117[56] : कहाँ आवाज़ होती है--

बहर-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम
मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन--मफ़ाईलुन
1222----------1222---------1222--------1222
----    ----

एक ग़ज़ल : कहाँ आवाज़ होती है--


कहाँ आवाज़ होती है कभी जब टूटता है दिल
अरे ! रोता है क्य़ूँ प्यारे ! मुहब्बत का यही हासिल

मुहब्बत के समन्दर का सफ़र काग़ज़ की कश्ती में
फ़ना ही इसकी क़िस्मत है, नहीं इसका कोई साहिल

’मुहब्बत का सफ़र आसान है”- तुम ही तो कहते थे
अभी है  इब्तिदा प्यारे ! सफ़र आगे का है मुश्किल

समझ कर क्या चले आए, हसीनों की गली में तुम
गिरेबाँ चाक है सबके ,यहाँ हर शख़्स है  साइल

तरस आता है ज़ाहिद के तक़ारीर-ओ-दलाइल पर
नसीहत सारे आलम को खुद अपने आप से गाफ़िल

कलीसा हो कि बुतख़ाना कि मस्जिद हो कि मयख़ाना
जहाँ दिल को सुकूँ हासिल हो अपनी तो वही मंज़िल

न जाने क्या समझते हो तुम अपने आप को ’आनन’
जहाँ में है सभी नाक़िस यहाँ कोई नहीं कामिल


-आनन्द.पाठक-

कोई टिप्पणी नहीं: