गुरुवार, 27 अगस्त 2020

ग़ज़ल 155 : बेज़ार हुए क्यों तुम ---

221---1222--//221---1222
मफ़ऊलु--मुफ़ाईलुन // मफ़ऊलु--मफ़ाईलुन
बह्र  हज़ज मुसम्मन अख़रब
या
हज़ज मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ मक्फ़ूफ़ मुखन्निक़ सालिम अल आख़िर 
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एक ग़ज़ल : बेज़ार हुए तुम क्यों --

बेज़ार हुए तुम क्यों, ऐसी भी  शिकायत क्या?
मै अक्स तुम्हारा हूँ, इतनी भी हिक़ारत क्या!   

हर बार पढ़ा मैने, हर बार सुना तुमसे ,
पारीन वही किस्से, नौ हर्फ़-ए-हिक़ायत क्या?   

जन्नत की वही बातें, हूरों से मुलाक़ातें,
याँ हुस्न पे परदा है, वाँ  होगी इज़ाजत क्या?

तक़रीर तेरी ज़ाहिद, मुद्दत से वही बातें,
कुछ और नया हो तो, वरना तो समाअत क्या!

हर दिल में निहाँ हो तुम ,हर शै में फ़रोज़ां  हो,
ऎ दिल के मकीं मेरे! यह कम है क़राबत क्या!

दिल पाक अगर तेरा ,क्यों ख़ौफ़जदा  बन्दे!
सज़दे का दिखावा है? या हक़ की इबादत, क्या?

मसजिद से निकलते ही, फिर रिन्द हुआ ’आनन’,
इस दिल को यही भाया, अब और वज़ाहत क्या!

-आनन्द.पाठक--

 शब्दार्थ
अक्स = परछाई ,प्रतिबिम्ब
हिक़ारत = घॄणा ,नफ़रत
पारीन:   = पुराने
नौ हर्फ़-ए-हिक़ायत = कहानी में कोई नई बात
रिन्द   =  शराबी
तक़रीर = प्रवचन
समाअत  = सुनना
फ़ुरोज़ाँ   = प्रकाशमान,रौशन
क़राबत = नजदीकी
दिल के मकीं  = दिल के मकान में रहने वाला
वज़ाहत = स्पष्टीकरण