गुरुवार, 24 सितंबर 2020

डायरी 01


आँख जब भी मिले ,प्यार में ही ढले
हाथ जब भी बढ़े  दोस्ती के लिए
आदमी में अगर आदमियत न हो 
है ज़हर आदमी ,आदमी  के लिए   --[नामालूम ]
-----

भीलन लूटीं गोपियाँ ,वही अर्जुन वही बान
मनुज बली नहीं होत है ,समय होत बलवान    [ना मालूम ]
-----

क्या गेहूँ चावल मोठ मटर
क्या आग धुआँ क्या अंगारा
सब ठाठ पड़ा रह जाएगा
जब लाद चलेगा  बंजारा  ----                                 -नज़ीर अकबराबादी -[ बंजारानामा से ]
-----

रहिमन जिह्वा  बावरी ,कह गई सुरग पताल
आपहि कहि अन्दर हुई ,जूती खाय कपाल --             -रहीम -
----

वह ख़ुद ही जान जाते हैं ,बुलन्दी आसमानों की
परिंदों को नहीं दी जाती तालिम उड़ानॊं  की                 ना मालूम
-----

यह आइना है सदाकत बयान करता है
कि इसके आगे अदाकारियां नहीं चलती                  -मंज़र भोपाली-
-------

तुम तकल्लुफ़ को भी इखलास समझते हो ’फ़राज़’
दोस्त होता नहीं हर हाथ  मिलाने  वाला                  - फ़राज़ अहमद ’फ़राज़’-
------

अपने हर लफ़्ज़ से ख़ुद आइना हो जाऊँगा
उसको छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा            -वसीम बरेलवी-
------

      --वन्दे मातरम--
नोट : प्रथम दो पद संस्कृत में हैं और शेष ’बंगला भाषा " में है ।

वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलाम्
मलयजशीतलाम्
शस्यश्यामलाम्
मातरम्।

शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीम्
फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीम्
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम्॥ १॥

कोटि कोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले
कोटि-कोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले,
अबला केन मा एत बले।
बहुबलधारिणीं
नमामि तारिणीं
रिपुदलवारिणीं
मातरम्॥ २॥

तुमि विद्या, तुमि धर्म
तुमि हृदि, तुमि मर्म
त्वम् हि प्राणा: शरीरे
बाहुते तुमि मा शक्ति,
हृदये तुमि मा भक्ति,
तोमारई प्रतिमा गडी मन्दिरे-मन्दिरे॥ ३॥

त्वम् हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदलविहारिणी
वाणी विद्यादायिनी,
नमामि त्वाम्
नमामि कमलाम्
अमलां अतुलाम्
सुजलां सुफलाम्
मातरम्॥४॥

वन्दे मातरम्
श्यामलाम् सरलाम्
सुस्मिताम् भूषिताम्
धरणीं भरणीं
मातरम्॥ ५॥

--बंकिम चन्द्र  चटर्जी--
--------------------

शे’र

अब मैं समझा तेरे रुखसार पर तिल का मतलब
दौलत-ए-हुस्न पर  पहरेदार बिठा रखा  है 

-नामालूम-
--------
जब वन में आग लग गई तो--

पेड़ ने हंस से कहा--

आग लगी वन-खंड में ,दाझै  चन्दन  वंश
मैं तो दांझा पंख बिन ,तू  क्यों  दाझै  हंस

हंस ने पेड़ से कहा--

पान मरोडिया  फल भख्या ,बैठ्या एकल डाल
तू दाझै मैं उड़ चलूँ ? जीणौ  कितने  साल 

------------------

पेड़ के वो पत्ते नहीं जो गिर जाए हम 
आँधियों से कह तो  औक़ात में  रहें
-----

निगाहों में मंज़िल थी गिरे और गिर कर सँभलते रहे
हवाओं ने कोशिश बहुत की मगर ,चिराग़ आँधियों में चलते रहे

-----

परिन्दों को मंज़िल मिलेगी यक़ीनन
ये  फैले हुए उनके पर बोलते हैं
वो लोग रहते हैं ख़ामोश अकसर
ज़माने  में जिनके हुनर बोलते हैं

-ना मालूम -
-----------

जब भी पिया है पत्थरों को तोड क  पिया है
ऎ समन्दर तेरा बूँद भर भी एहसान नहीं मुझ पर
---------------

फ़लक़ को जिद है जहाँ बिजलियाँ गिराने की
हमें भी जिद है  वहीं आशियाँ  बनाने  की
------

ज़िन्दगी की असली उड़ान बाक़ी है
ज़िन्दगी के कई इम्तिहान बाक़ी  है
अभी तो नापी है मुठ्ठी भर ज़मीन हमने
अभी तो सारा आसमान  बाक़ी है

----
जब से मैं चला हूँ मंज़िल पर है नज़र
कभी रास्ते में मील का पत्थर नहीं देखा

-बशीर बद्र-
----------------------------------

क़ातिल की यह दलील भी मुंसिफ़ ने मान ली
मक़्तूल ख़ुद गिरा था ख़ंज़र  की नोक  पर 

-नामालूम-
-----

प्रिय वाक्य  प्रदानेन ,सर्वे तुष्यन्ति जन्तव :
तस्मात देव वक्तव्यं , "वचने किम दरिद्रता"
 -------------------------

ऐसा माना जाता है कि उर्दू में सबसे पहला माहिया चिराग़ हसन
’हसरत; मरहूम साहब ने लिखा था [ 1937 में ] 

बागों में पड़े झूले
तुम भूल गए हम को
हम तुम को नहीं भूले

[स्रोत : फ़ाइलात -उर्दू अरूज़ का नया निज़ाम [प-216] - द्वारा 
मुहम्मद याकूब ’आसी’ ]
-----------------

सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िन्दगानी फिर कहाँ
ज़िन्दगानी गर कुछ रही तो ये जवानी फिर कहाँ

--ख़्वाज़ा मीर ’दर्द’--
-------------------------
मैं क़तरा हो कर समन्दर से जंग लेती हूँ
मुझे बचाना समन्दर की जिम्मेदारी है
दुआ करो कि सलामत रहे हिम्मत मेरी
यह इक चिराग़ कई आँधियो पे भारी है

------
मज़िल पर जो पँहुच गए ,उन्हें नाज़-ए-सफ़र तो कोई नहीं
दो-चार क़दम जो चले नहीं रफ़्तार की बातें करते हैं
----
ऎ मेरे रहबर बता ,मेरा कारवाँ क्योंकर लुटा ?
मुझे रहजनों से गिला नहीं ,तेरी रहबरी का सवाल है 

--- 
जिसके आँगन में उमीदी का शजर लगता है
उसका हर ऎब ज़माने को हुनर  लगता है
                              - परवीन शाकिर--
--------------
कैसे बताऊँ क्या हुई जीने की आरज़ू
इक हादसे में आप अपनी मौत मर गई
                           -सरवर आलम ’राज़’ सरवर
---------
 ’अज़्म’ यह जब्त की आदाब कहाँ से सीखी
तुम तो हर रंग में लगते थे बिखरने वाले ।
                        - अज़्म बेहजाद -